________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
५७४
जब ध्यान धर, कोटिकगच्छ सुथाप || ३ || दश पूर्वी श्रुतकेवली, भये वज्रवर स्वाम । तादिनतें गुरुगच्छको, वज्रशाख भयो नाम | ४ || चंद्रसूरि भये चंद्रसम, अतिही बुद्धि निधान | चंद्रकुली सब जगतमें, पसर्यो बहुविज्ञान || ५ || वर्द्धमानके पाट पद, सूरि जिनेश्वरमा । चैत्यवासिकुं जीतकर, सुविहित पक्ष प्रकाश || ६ || अणहिलपुर पाटणसभा, लोक मिले तिहाँ लक्ष | खरतर विरुद सुधानिधि, दुर्लभराजसमक्ष ॥ ७ ॥ अभयदेवसूरि भये, नवअंगटीकाकार | थंभणपारस प्रगटकर, कुष्ठ मिटावनहार, || ८ || श्रीजिनवल्लभरि गुरू, रचना शास्त्रअनेक | प्रतिबोधे श्रावकबहुत, ताके पट्टविशेष ॥ ९ ॥ हुंबड श्रावक वाघडीअठ्ठारे हजार, जैन दयाधर्मी किये, वरते जैजैकार || १० || दादा नाम विख्यात जस, सुर नर सेवक जास । दत्तसूरि गुरु पूजतां, आनंद हर्ष उल्लास ॥ ११ ॥ दिल्लीमें पतसाहने, हुकम उठाया शीस । मणिधारी जिनचंद गुरु, पूजो बिसवावीस ।। १२ ।। ताके पट्ट परंपरा, श्रीजिनकुशलसूरिंद । अकबरकुं परचा दिया, दादा श्रीजिनचंद || १३ || ऐसे दादाच्यारकूं, पूजो चित्त लगाय | जल चंदन कुसुमादि कर, ध्वज सौगंध चढाय ॥ १४ ॥ चाल दादा चिरंजीवो ए दशी ॥
गुरुराजतणी कर पूजन भवि सुखकर मिलसी लछि धणी एअकणी गुरु दत्तमूरिंद जग सुखकारी, गुरु सेवकने सानिधकारी, गुरु चरणकमलनी बलिहारी गुरु० ॥ १ ॥ संवत इग्यारे बारशशी, बत्तीसे जनम्यां शुभ दिवसी, श्रावककुल हुंबडनें हुलसी ॥ गु० ॥
For Private And Personal Use Only