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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४७ श्रीशत्रुजयकी यात्राकरी, तथा मंडोवर नगरमें संघपति साह मनोहरदासनें बनवाया, चैत्य श्रृंगार श्रीऋषभादि २४ चौवीस बिबोंकी प्रतिष्ठा करी, इसमाफक अनेक देशोंमें विहारकरनेवाले, सर्वसिद्धान्तपारगामी युगवरसम श्रीजिनचन्द्रसरिजी अणशण आराधना समाधिपूर्वक शुभध्यानसें संवत् १७६३, श्रीसूरत बंदर में स्वर्ग गए ॥ * ॥ इनोंकेवारे लुंपक मतके अन्दरसे ढूंढक मत प्रचलित भया, इस मूर्तिउत्थापक द्रव्य भाव श्रीजिनपूजाका द्वेषी उत्सूत्र प्ररूपक मतकी किंचित्संक्षिप्त उत्पत्तिदर्शाताहूं, सूरत नगरमें एक वोहरा वीरजी नामें दशाश्रीमाली भया, उसके फूला नामें बालविधवा बेटीथी, उसनें लवजी नामें एक पुत्रकों गोदलिया, सोलुपकोंके उपासरे पढनेकों जाताथा, लुपकोंकी संगतसें वैराग्य पायके वजरंगजीलोंकेपासे दिक्षालीवी, दो वर्षपीछे गुरुकों कहने लगाकि शास्त्रमुजब आचार क्युं नहिं पालतेहो, गुरुबोले इस कालमें उत्कृष्ट दया नहिं होवेहै, तव लवजी बोला तुम भ्रष्टाचारीहो में तुमरा मत छोडके जुदी दिक्षा लेसुं, एसा कहके दोजति भूणाजी, सुखजीकों, लेकरतीनजणां आपही भेषधारण किया, मुंहआडी मुहपत्तीबांधी, इनका नवीन मत देखकेकोई घरमें उतरण नदिया, तब बहुतदिन ग्रामनगरके वाहिर स्मशानकी शालामे या गाम नगरमें टूटे फूटे ढुंढमकानमें रहे इससे ढूंढिया नाम हुवा, उनोंने मत चलाने बावत बहुत कष्टकिया, तब वुगलेके माफक ऊपरकी छंछा फूफां देखके घणां लुपकपक्षी गुजराती वणियामानने लगे, क्युकिं अग्यानी लोक ऊपरकी फुफा देखते हैं, जिसमें गुजराती गोद कहने लगानिरजीलोंकेपासे माताथा, लुपको For Private And Personal Use Only
SR No.020407
Book TitleJinduttasuri Charitram Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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