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चिष्ट चांडालिकमत, तपोष्ट्रिकमत, उपाधिमत, गुर्वाज्ञालोपक, गच्छमर्यादालोपक, उत्सूत्रमत, दैवसूरमत, सागरमत इत्यादि अनेक नाम है यहमत संवत् १६०० आसरे में उत्पन्नहूवा है, इसमतके उत्पादक प्रथम धर्मसागरजी भये वाद देवसूरिजी सहायकभये है, इसमतकेसाथ सिद्धान्तीय पूर्वसूरिप्रणीत पंचांगी अनुसारिविधिप्ररूपक खरतरोंका सदाही विषमवाद देखाजावे है, और पंचमआरारूप दुःखमाकाल के प्रभावसें इंढकतेरेपंथी तपोटवगेरोंकी इसमे जादा तर प्रवृत्ति देखिजावे है, शुद्धप्ररूपक सुविहित गच्छवासी मुनितो अल्प देखे जावेंहैं, आगमाचरणा शुद्ध प्ररूपक सुविहित गच्छवासी सब हिमुनियोंके साथ खरतर गच्छ खरतर मुनियोंका किसीतरेका विसंवाद विरोध भाव वगेरा जराभी नहिं है, तो श्रीउद्योतन सूरिजी के शिष्य सर्वदेवसूरिजी या पद्मचन्द्रसूरिजी के संतानीय तपागच्छीय मुनियोंके साथ क्या असमंजस होनेका संभव है, अपितु कदापि नहिं, परन्तुसत्भावकोंतो सत् पणें कहणाहि होवे है, असत्प्ररूपणातो करि जावेनहिं, यदि कदाचित् छद्मस्थपणेंसें होभीजावेतो आगमाचरणादिक पुष्ट प्रमाणोंसे भिन्नभिन्न गच्छके सुविहित गीतार्थोके द्वारा अक्षर प्रमाण अर्थादिक तपासकर मिटाणा चाहेतो मिटभीजावे, परन्तु ममखभावसे या पक्षपातसें उसीवातको पकडके रक्खे खींचाकरेतो सदाही विसंवादादिक रहेणेंका संभव है, उणों के कर्मगतिके प्रभाव से, ऐसा होणा ज्ञानिमहाराज देखा है तो होवे उसका क्या कियाजावे और देखोकि श्रीविजयतिलक मूरिजी के रासके आदिमें निरीक्षण तथा राससार दिया है, जिसमें उत्सूत्रप्ररूपणा
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