Book Title: Jinduttasuri Charitram Uttararddha
Author(s): Jinduttsuri Gyanbhandar
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

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Page 185
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४२ संबंधि सर्वगछविषयिएक्यतापरकसामायिकका दृष्टान्त प्रथम दियाहिहै, इसीवरे शेष विषयमेभी समजलेना चाहिये इसीतरे होनेसें सर्व दुरगुणोंका अभाव और धर्महानिका नाश, वृद्धिकासमयहै सर्वगछोंकी एक्यता होणेसें श्रीवीरशासनोमति अनेक प्राणि योको प्रतिबोध समय होवे, सबहि एक्यतासें परमलेहका समय देखाजावेहै, और सबहि सत्यहै सबहिजिनाज्ञाके आराधकहैं, इसीतरे वर्तना कल्याणकारीहै, और किसी एकादि व्यक्तिगत ईर्षादि विकारसें आगम आचरणाविरुद्ध उत्सूत्रादि दोषोंका गच्छनायकादि खीकार नहिं करे वह गछ दूषित न होवे, उसगच्छकों ईषोदिकसे दूषित कहे वही दूषितहै, और आगम आचरणादि पुष्टप्रमाणाक्षर देखाणे पर वा उपलब्ध होनेपर स्वीकार न करे वहही सदोषहै, उसका पक्षकरे वहमि सदोषहै, परन्तु गच्छादि दूषित नहि, पुष्टप्रमाणाक्षरादिकसें सत्यप्ररूपणादिक कों दूषित कहे वह सदोषहै 'जेसे सपोटादि' ऐसे और स्पष्टपुष्टससंवन्धपूर्वक प्रमाणाक्षर सहित सत्यवक्ता दूषित नहिं, और इसीतरे चोरासी वगेरेका कहेणा प्रमाण होवेहै' और मूलसूत्र नियुक्ति टीका भाष्य चूर्णी, अविछिन्न गुरुपरम्परा, और श्रुतवेष प्ररूपणादि आये हुवे प्रमाणभूत होवेहै, इसमर्यादासे विपरीत प्रमाण न होवे, और इहांपर विवेचन बहुतसा संभवेहै, तथापि फिर देखाजावेगा, और इहांपर तपोटादिवावदुक कहेहै, कि अहो सत्यपक्षका समुदाय कितनाहै देखो, और हमारा समुदाय कितना बडाहै फेर इसपक्षकों छोडदेवें तो यह सबहि तुमारा होजावें सो फेर व्यर्थ इतना सत्यका क्यों आग्रह करेहैं उचर इसीतरहै For Private And Personal Use Only

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