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करतां हुवे, तब एक दिनके समय वह पार्थचन्द्रयति उसलोंके वणियेकी कुछ अभिलाषापूर्वक सेवा जाणकर पंडितपावचन्द्रयति लोंकासें इसतरे बोला, हे लेखक तें मेरी इतनी सेवा किसवास्ते करता है, तब दुष्ट अध्यवसायि लोंका वाणिया मायावृत्तिसें बोला कि, हे गुरो मेरेको प्राकृत भाषा संस्कृत भाषादिकका बोध नहिं है, और सामान्य लोक भाषाका मेरेको बोध है, इसलिये आप मेरेको सूत्रोंका बालावबोध याने सूत्रोंका अक्षरार्थटवा बनादेवो, जिसकरके में सुबोधहोजाबुंगा वादमें आपको श्रीपूजवनादेवंगा, और में आपका खास वजीर होजावंगा, वादमें आप और में दोनोंजने स्वतंत्र और श्रीपूजोंकी तरह आडंबर बनाकर अपणेभि पूजे माने जावेगें, लोकमें, इसलिये आप विद्वान् हैं मेरेको सूत्रोंका टवार्थ लिखदेवे, यह मेरा अभिप्राय है, इसतरेका मायावी लोंके लेखक वाणियका वचन सुनकर उसकी सेवासें हर्पित होकर, और आगे पीछे नफे नुकसांणका तो विचार किया नहिं, और लोभमें आयके पंडित पार्थचन्द्रयतिने लोंकेको सूत्रोंपर वृत्ति अनुसार टबार्थ लिखदिया, बादमे वह सूत्रोंका टवार्थ स्वतंत्र लिखलिया, इसतरे सूत्रोंका टवार्थ हाथ आनेपर लोंकाके पगमें जोर आगया, अर्थात् बलिष्ठहो गया, वादमें पंडित पार्थचंद्रयतिकों भी धोखादेकर, सूत्रादिकका टवार्थ लेकर, लोंका लेखक लखमसी राजकारभारीकेपास नींबडी चलागया, पंडितपार्श्वचन्द्रयतितो उभयतरफसें भ्रष्टभया, वादमें लखमसीके सहायसे धर्मकहना सरुकिया परन्तु जब काल प्रभावसे श्रद्धाहीन धनहीन हुवे जीवोंको जाणकर, और बहुत
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