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समाधि कालधर्म प्राप्त होकर, संवत् १६७० आसोजवदि २ दूजकेदिन बेनातट में (बीलाडामे) स्वर्ग प्राप्त भए, तिस वखतमें संवत् १६२१ भावहर्ख उपाध्यायसें भावहखय खरतर शाखा निकली, यह सातमा गच्छ भेद भया, फेर इणोंके समय लुंपक श्रीजीवराज - र्षिपूजका शिष्यकों को कारणसें लुंपकमतरों बाहिर किया, तब तपा गच्छीय श्री विजयदान स्वरिका वासक्षेपलेकर शिष्यभया, धर्मसागर इसनाम से प्रसिद्ध भया, वादमें परिश्रमादिकयोगसें संस्कृत प्राकृत पढके विद्वान भया, तब योग्यसमजके श्रीविजयदानसूरिजीनें वाचकपदस्थ किया, श्रीधर्मसागरगणि इसनामसें प्रसिद्ध होके, अलस्वतंत्र विहार धर्मदेशनादिक करणेंलगे, इसतरे प्रवृत्तिकरतां थकां निशंकनिर्भय होणेंसें जमालिआदिकके जैसा उत्सूत्रप्ररूपणाकरणे लगा उसका कारण ऐसा प्रथमभी लंपकमतमें जबथा तब उहांबि जिदकरता हुवा एकान्त हठवादकदाग्रहकी प्रकृतिसै लंपक सम्प्रदायसै बाहिरकीयाथा जाणाजावे है वाद तपाविरुदालंकृत श्री चित्रवगच्छक सम्प्रदाय मिली, तबतो बंदरथा और विच्छू खाया ऐसा भया, वाद क्रमसे श्रीगुरुकीकृपासे पदस्थादिकउच्चावस्थाकों प्राप्त होके, पूर्वकी स्वाभाविकप्रकृतिका क्रमक्रमसै असरभया उसलिये उत्सूत्रादिकका व्यसनभया, इसकारणसें श्रीविजयदानमूरिजी के, और परगच्छादिकके अप्रीतिके भाजन होगये, और प्रथम बहुतवार मिच्छामिदुक्कड आलोयणा प्रायश्चित्त देते रहे, ऐसे करता जब उत्सूत्रकंदकुदाल, कुमतिकंदकुद्दाल, नामें नवीन ग्रन्थवनाया, इसतरे बहुत प्रकार से धर्मसागरका मदोद्धृतपणा उससे
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