________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Achar
५११ मूर्तिकों उठायके दरबजेकेपास स्थापनकरी, तब क्रोधायमानभया, क्षेत्रपाल पीछाउहांहि बैठा तब आचार्य तीन दिनकवाद वाहिर स्थिरकीया तीनप्रभूकी मूर्तियां स्थिरकरी बावनदेहरिकी १४७३ के साल प्रतिष्ठाकरी वाद क्षेत्रपाल जहांतहां गुरुमहाराजका चतुर्थव्रत भंगपणा दिखलाने लगा, इसीतरे एकदा गुरुमहाराजचित्रकूट विषे गए, उहांवि देवतानें वैसी तरहसें करा, तब सर्व श्रावक चतुर्थव्रतका भंग जाणके यहपूज्यपदके योग्य नहिंहै, ऐसा विचार करा क्रमसेंवर्द्धनसूरिजीव्यन्तर प्रयोगसे ग्रथलीभूत भए पिप्पलक ग्राममें जाके रहै, कितनेक शिष्यपासमें रहै, तब सागरचन्द्राचार्य प्रमुखसमस्तसाधुवर्ग एकत्र होके, गछकी स्थिति रखणेवास्ते, नवीन आचार्य स्थापना करना, ऐसाविचार करा, तब नवीन गोरानाम क्षेत्रपालकों आराधनकरके, और सर्वदेशके खरतरगच्छीयसंघकी अनुमतिहस्ताक्षर मंगवाके सर्वसाधुमंडली एकट्ठीकरके भाणसोंल ग्राम आए, तिहां श्रीजिनराजसूरिजीनें एक अपणे शिष्यको वाचक शीलचंद्र गणिकेपास पढणेकेवास्ते रक्खाथा सो समत्तशास्त्रका पारगामीभया, भणसालीगोत्रीय, भादोमूलनाम, संवत् १४६१ दीक्षाग्रहणकरी, अनुक्रमे पचवीस वर्षकेभए, तब तिनकों योग्यजाणके श्रीसागरचंद्राचार्ये सातभकाराक्षरमिलायके संवत् १४७५ माघसुदि १५ पूर्णमासीके दिन, भणशाली नाल्हासाहने सवालक्ष रुपये खरचके नंदी महोत्सवसहितम्ररिपदमें स्थापन किये, सातभकार लिखे है ? भाणसोल नगर, २ भणशालिक गोत्रीय, ३ भादोनाम, ४ भरणी नक्षत्र, ५ भद्राकरण, ६ भहारकपद, ७ जिनभद्रसरि, ॥ इसमाफक
For Private And Personal Use Only