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विधिद्रव्य पूजा और सार स्तुति थुइगीत से श्रीजिनेश्वरकी भात पूजा करती हैं ॥३॥
पुरिसेणं बुद्धिमया, सुहबुद्धिं भावओ गणितेणं । जत्तेण होइयवं, सुहाणुबंधप्पहाणेणं ॥४॥
भावार्थ- शुभानुबन्ध करके प्रधानबुद्धिमान् पुरुष शुभ बुद्धिको भावसे भावताहुआ पूजामें प्रयत्न वाला होय ॥
संभवइ अकाले बिहु, कुसुमं महिला णं तेण देवाणं । पूआए अहिगारो न उहउ होइ सज्जुत्तो ॥५॥
भावार्थ-अकाल वेलाभी याने स्त्री जिनप्रतिमाकी पूजा करती हैं उससमयमेंभी उसस्त्रीको ऋतुधर्महोता है उसीलिये श्रीजिन देवकी पूजाकरनेमें उन ऋतुधर्म आनेवाली तरुणस्त्रियोंको अधिकार युक्ति युक्त नहीं है ॥५॥ लोगुत्तम देवाणं, समचणे समुचिओ इहं नेउ । सुइगुण जित्तणओ, लोए लोउत्तरे सूरीसेहिं ॥६॥
भावार्थ- इहां लोकोत्तम श्रीजिनदेवका ( समर्चन) पूजन उसमें समुचित (शुचिगुण ) पवित्र गुण ज्येष्ठपनेसे लोकमें और लोकोत्तर जिनधर्ममें (सूरीश) गणधरमहाराजोंने कहा जानना ॥६॥
न छिवंति जहा देहं, उसरणभावं जिणवरिंदाणं । तह तप्पडिमंपि सयं, पूअंति न जुवनारीओ ॥ ७ ॥
भावार्थ-जैसे अशुद्धशरीरको धारण करनेवाली ऋतुवंती स्त्री अन्य वस्तुको नहीं छूती है वैसे श्रीजिनप्रतिमाकोभी अपने हाथसे
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