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४४३ तरुणस्त्रीका हाथके स्पर्शसे अतिशयवाली तथा श्रीजिनशासनकी उन्नतिकरनेवाली चमत्कारी देवाधिष्ठित श्रीमूलनायक जिन प्रतिमाकी आशातना और उसके अधिष्ठाता देवका लोप नहीं होने के लिये इस विशेष लाभको दीर्घदृष्टिसे विचारकर तरुणअवस्था वाली स्त्रीको श्रीमूलनायकजिनप्रतिमाकी चंदनादि विलेपनद्वारा केवल अंगपूजा नहीं करना उच्न पदोघट्टन कुलकमै लिखा है तथा विधिविचारसार कुलकमेंभी लिखा है कि
सागारमणागारं, ठवणाकप्पं वयंति मुणिपवरा । तत्थ पढम जिणाणं, महामुणीणं च पडिरूवं ॥१॥
भावार्थ-साकार अनाकाररूप स्थापनाकल्प प्रवरमुनियोंने कहा है उसमें प्रथम साकार कहे है कि श्रीजिनके तथा महामुनिके प्रतिरूप (सदृश प्रतिमा) हो ॥१॥
तं पुण सप्पडिहेरं, अप्पडिहेरं च मूलजिणबिंब । पूइजइ पुरिसेहि, न इथिआए असुइभावा ॥२॥
भावार्थ-वहपुन प्रातिहार्यसहित तथा प्रातिहार्यरहित श्रीमूलनायक जिनप्रतिमाको पुरुष पूजे स्त्रीअशुचिवाली नहीं पूजे ॥२॥ काले सुइभूएणं विसिठ पुप्फाइहिं विहिणाउ । सारत्थुइ थुतिगुरुई, जिणपूआहोइ कायवा ॥ ३ ॥
भावार्थ-कालवेला. ऋतुधर्मआवे वह स्त्री (शुचि) पवित्र होके विशेष श्रेष्ठ पुष्पादि (धूपदीप अक्षत नैवेद्य फल) करके
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