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दिया, ॥४५॥ इनोंके समयमें श्रीदेवचन्द्रसूरीका शिष्य तीनकोड ग्रंथकाकर्ता कलिकालमें सर्वज्ञविरुदधारक पाटणका कुमारपालराजाको प्रतिबोधक श्रीहेमाचार्यजी भए संवत् , ११६६ सरिपद संवत् १२२९ देवलोक, इनोंका विशेष अधिकार कुमारपालचरित्रसें जाणना और मणियाला श्रीजिनचन्द्रसूरिजीका विशेषवृतान्त गणधरसार्धशतकबृहद्दत्ति प्राचीन हस्तलिखितपट्टावलीसें या संग्रदायसें जाणना तत्पदे ४६ मा युगप्रधानपदधारक श्रीजिनपतिसूरिजी भए, तिके मालू गोत्रीय साह यशोवर्द्धन पिता, मूहव देवी माता, संवत् १२०५ चैत्र वद ८ के दिन मूल नक्षत्रे जन्म हवा, संवत् १२१८ फागुणवदि ८ के दिन दिल्ली नगरके विष दीक्षा संवत् १२२३ से कार्तिक सुदि १३ त्रयोशीके दिन श्रीजयदेवाचार्य आचार्य पदमें स्थापन किये पीछे विहार करते श्रीजिनपतिम् रिजी एकदा बब्बर नामापत्तनके विषे गए, तहां ३६ छत्तीस वादियोंकू जीतके बहोत जिनशासनकी प्रभावनाकरी, तथा फेर एकदा आसापुरमें श्रीमालीज्ञात हाजी साहने मंदिर बनवाया, उसकी प्रतिष्ठाके अवसरमें मणिग्रहण करनेवाला योगीनें जिनप्रतिमाकों स्तंभन करदी, तब चिंता सहित श्रीजिनपतिसरिजीनें अपनें गुरूकों आराधनकिया, तब श्रीजिनचन्द्रसरिजी महाराज प्रगट होके वासचूर्ण दिया, पीछे प्रभातसमय गुरू उन प्रतिमा ऊपर वासचूर्ण डाला तिस करके प्रतिमा जलदी ऊठगई, तबयोगी प्रसन्नभयाथका मणिकों पीछी देदीवी, श्रीगुरूमहाराजकी बहोत महिमा फैली, तथा और एकदा श्रीगुरूमहाराज, अजमेर नगरमें चतुर्मासी रहें,
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