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५. १४ मार्गणाओंका सत्, संख्यादि ८ प्ररूपणाओंकी अपेक्षा जो विस्तृत परिचय देनेमें आया है उसका ग्रहण उन उन मार्गणाओंमें न करके सत् सख्यादि आठ अनुयोग द्वारोंके नामोंके अन्तर्गत किया गया है।
६. किसी भी विषयके अपने भेद-प्रभेदोंको भी उसी मूल विषयके अन्तर्गत ग्रहण किया गया है। जैसे उपशमादि सम्यकदर्शनके भेदोंको 'सम्यग्दर्शनके अन्तर्गत'।
७. कौन मार्गणा व गुणस्थानसे मरकर कौन मार्गणामें उत्पन्न होवे तथा कौन-कौन गुण धारण करनेकी योग्यता रहे, इस नियम व अपवाद सम्बन्धी विषयको 'जन्म' नामके अन्तर्गत ग्रहण किया गया है।
८. जीव समासों, गुणस्थानों, मार्गणा स्थानों, प्राण तथा उपयोगादि २० प्ररूपणाओंके, स्वामित्वको ओघ व आदेशके अनुसार सम्भावना व असम्भावना 'सत्' शीर्षकके अन्तर्गत ग्रहण की गयी है।
९. अन्य अनेकों विषय प्रयोग उस उस स्थानपर दिये गये नोटके द्वारा जाने जा सकते हैं। सारणियाँ एवं चित्र
विषयके भेद-प्रभेदों, करणानुयोगके विभिन्न विषयों तथा भूगोलसे सम्बन्धित विषयोंको रेखाचित्रों, सारणियों तथा सादे एवं रंगीन चित्रों द्वारा सरलतम रूपमें इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है कि विशालकाय ग्रन्थोंकी बहुमूल्य सामग्री सीमित स्थानमें चित्रांकितकी तरह एक ही दृष्टिमें सामने आ जाती है। मार्गणा स्थान, गुणस्थान, जीवसमास, कर्मप्रकृतियाँ, ओघ और आदेश प्ररूपणाएँ, जीवोंकी अवगाहना, आयु आदिका विवरण, त्रेसठ शलाका पुरुषोंकी जीवनियोंका ब्यौरेवार विवरण, उत्कर्षण, अपकर्षण, अधःकरण, अपूर्वकरण आदिका सूक्ष्म एवं गूढ़ विवेचन, जैन मान्यतानुसार तीन लोकोंका आकार, स्वर्ग और नरकके पटल, मध्यलोकके द्वीप, समुद्र, पर्वत, नदियाँ आदिको लगभग तीन सौ सारणियों एवं चित्रों द्वारा अत्यन्त सरल एवं सुरुचिपूर्ण ढंगसे प्रस्तुत किया गया है। मुद्रण प्रस्तुति
___ अबतक प्रकाशित कोशों या विश्वकोशोंकी अपेक्षा इस कोशकी मुद्रण प्रस्तुति भी किंचित् विशिष्ट है । सब छह प्रकारके टाइपोंका उपयोग इस तरह किया गया है कि मूल शब्द, विषयशीर्षक, उपशीर्षक, अन्तरशीर्षक, अन्तरान्तरशीर्षक तथा सन्दर्भ संकेत, उद्धरण और हिन्दी अर्थ एक ही दृष्टिमें स्वतंत्र रूपमें स्पष्ट ज्ञात हो जाते हैं। सामग्रीका समायोजन भी वर्गीकृत रूपमें इस प्रकार प्रस्तुत है कि टाइपोंका इतना वैभिन्न्य होते हुए भी मुद्रणका सौन्दर्य निखरा है। कृतज्ञता ज्ञापन
प्रस्तुत कोशकी रचनाका श्रेय वास्तवमें तो उन ऋषियों, आचार्योंको है, जिनके वाक्यांश इसमें संगृहीत हैं। मेरी तो इससे अज्ञता ही प्रकट होती है कि मैं इन्हें स्मृतिमें न सँजो सका इसलिए लिपिबद्ध करके रखा।
शास्त्रोंके अथाह सागरका पूरा दोहन कौन कर सकता है ? जो कुछ भी गुरुकृपासे निकल पाया, वह सब स्व-पर उपकारार्थ साहित्य प्रेमियोंके समक्ष प्रस्तुत है। इसमें जो कुछ अच्छा है वह उन्हीं आचार्योंका है। जो त्रुटियाँ हैं, वे मेरी अल्पज्ञताके कारण हैं । 'को न विमुह्यति शास्त्रसमुद्रे।' आशा है विज्ञ जन उन्हें सुधारनेका कष्ट करेंगे।
अत्यधिक धनराशि तथा प्रतिभापूर्ण असाधारण श्रमसापेक्ष इस महान् कृतिका प्रकाशन कोई सरल कार्य न था। प्रसन्नता व उत्साहपूर्वक 'भारतीय ज्ञानपीठ' ने इस भारको सँभालनेकी उदारता दर्शाकर, जैन संस्कृति व साहित्यिक जगत्की जो सेवा की है उसके लिए मानव समाज युग-युग तक इसका ऋणी रहेगा।
-जिनेन्द्र वर्णी
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