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जैनविद्या - 22-23 10. भूपाल चतुर्विंशतिका टीका - यह अप्रकाशित है।
11. काव्यालङ्कार - रुद्रट के काव्यालंकार पर आशाधर ने संस्कृत में टीका लिखी थी जो अनुपलब्ध है।
12. जिनसहस्रनामस्तवन सटीक - इस ग्रन्थ पर श्रुतसागर सूरि ने टीका रची है। इसी टीकासहित यह ग्रन्थ भारतीय ज्ञानपीठ वाराणसी और माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला सोलापुर से प्रकाशित है। ___ 13. नित्यमहोद्योत - इसमें भगवान अर्हन्त के महाभिषेक से सम्बन्धित स्नान आदि का वर्णन है। इस पर श्रुतसागर सूरि की टीका भी है। इसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली से जिनसहस्र नाम सटीक और बनजीलाल जैन ग्रन्थमाला से अभिषेक पाठ संग्रह में श्रुतसागरी टीका सहित हो चुका है। ___ 14. रत्नत्रय विधान - यह अभी तक अप्रकाशित है। इसकी हस्तलिखित पाण्डुलिपि मुम्बई के सरस्वती भवन में है। इसमें रत्नत्रय पूजा का माहात्म्य वर्णित है।
15. जिनयज्ञकल्प3 - प्रशस्ति में बतलाया गया है कि नलकच्छपुर के निवासी खण्डेलवाल वंश के अल्हण के पुत्र पापासाहु के आग्रह से वि.सं. 1285 में अश्विन शुक्ल पूर्णिमा को प्रभारवंश के भूषण देवपाल राजा के राज्य में नलकच्छपुर में नेमिनाथ जिनालय में यह ग्रन्थ रचा गया था। यह युग-अनुरूप प्रतिष्ठाशास्त्र था। इसका प्रकाशन जैन ग्रन्थ उद्धारक कार्यालय से सं. 1974 में प्रतिष्ठा सारोद्धार के नाम से हुआ था। इसमें हिन्दी टीका भी है। इसके अन्त में प्रशस्ति है जिसमें वि.सं. 1285 तक रचित उपर्युक्त ग्रन्थों का नामांकन हुआ है। इसमें छ: अध्याय हैं। ___16. जिनयज्ञकल्पदीपक सटीक4 - इसकी एक प्रति जयपुर में होने का उल्लेख पं. नाथूराम प्रेमी ने किया है। ___ 17. त्रिषष्टि स्मृति शास्त्र सटीक46 – इसके नाम से ही सिद्ध होता है कि इसमें त्रेषठ शलाका पुरुषों का वर्णन है। इसका प्रकाशन मराठी भाषा टीकासहित सन् 1937 में माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला, शोलापुर से 37वें पुष्प के रूप में हो चुका है। आशाधर ने प्रशस्ति के भाष्य में लिखा है कि आर्ष महापुराणों के आधार पर शलाका पुरुषों के जीवन का वर्णन किया है। उन्होंने त्रिषष्टि स्मृतिशास्त्र पर स्वोपज्ञ टीका भी रची थी। इन्होंने इस ग्रन्थ को वि.सं. 1262 में नलकच्छपुर में राजा देवपाल के पुत्र जैतुंगिदेव के अवन्ती में राज्य करते समय रचा था।
18. सागार धर्मामृत टीका - इस भव्यकुमुदचन्द्रिका नामक सागार धर्मामृत की टीका की रचना वि.सं. 1296 में पूष वदी सप्तमी के दिन नलकच्छपुर के नेमिनाथ चैत्यालय में हुई थी। इस ग्रन्थ के निर्माणकाल के समय परमारवंश को बढ़ानेवाले