Book Title: Jain Vidya 22 23
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 31
________________ जैनविद्या - 22-23 22 कुछ पदों का विश्लेषण मात्र है, पूर्ण श्लोक की व्याख्या नहीं है । 'सागार धर्मामृत टीका ' के प्रारम्भ में उन्होंने यह लिखा बताया जाता है - समर्थनादि यन्नात्र ब्रुवे व्यासभयात् क्वचित् । तज्ज्ञानदीपिकाख्यैतत् पञ्जिकायां विलोक्यताम् ॥ - इसका अर्थ है विस्तार भय से किसी विषय का समर्थन आदि जो यहाँ नहीं कहा है उसे इसकी ज्ञानदीपिका पञ्जिका में देखें । अस्तु' धर्मामृत शास्त्र' को भलीभाँति समझने के लिए उसकी पञ्जिका और टीका दोनों का अध्ययन अभीष्ट है । ' धर्मामृत' की रचना के पूर्व श्रावकों (गृहस्थों अर्थात् सागारों) के आचरण के सम्बन्ध में स्वामी समन्तभद्र (120-185 ई.) कृत 'रत्नकरण्ड श्रावकाचार', अमृतचन्द्र सूरि (10वीं शती ई.) का 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय', सोमदेव सूरि ( 10वीं शती ई.) का 'उपासकाध्ययन', अमितगति द्वितीय (11वीं शती ई.) रचित 'उपासकाचार', अपरनाम 'अमितगति श्रावकाचार', 'चारित्रसार', 'वसुनन्दिश्रावकाचार', 'पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका' आदि ग्रन्थ विद्यमान थे और मुनि (अनगार) धर्म पर कुन्दकुन्द (8 ई. पू. से 44 ई.) के 'चारित्तपाहुड' औक 'मूलाचार' ग्रन्थ 1 पं. शाधर ने अपने से पूर्व रचित प्राय: सम्पूर्ण आगमिक व अन्य साहित्य का सम्यक् अध्ययन-मनन कर उसका उपयोग करते हुए अपने 'धर्मामृत' का प्रणयन किया था । उन्होंने 'मनुस्मृति' का भी प्रचुर उपयोग उसमें किया और वह 'महाभारत' तथा वात्स्यायन के 'कामसूत्र' से उद्धरण देने से भी नहीं चूके । उन्होंने हेमचन्द्र के ' योगशास्त्र' के उद्धरण भी इसमें दिये हैं । किन्तु यह हेमचन्द्र कौन थे, स्पष्ट नहीं है। प्रख्यात हेमचन्द्र सूरि की कृतियों में 'योगशास्त्र' का नाम दृष्टिगत नहीं होता । 'धर्मामृत' को सर्वप्रथम प्रकाशित कराने का श्रेय पं. नाथूराम प्रेमी को है । सन् 1915 में उन्होंने माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला से 'सागार धर्मामृत' भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका सहित प्रकाशित किया था और उसका मूल्य मात्र आठ आना था । उसी वर्ष पं. कलप्पा भरमप्पा निटवे ने भी अपने मराठी अनुवाद सहित उसे कोल्हापुर से प्रकाशित किया था जिसमें 'ज्ञानदीपिका पञ्जिका' से स्थान-स्थान पर टिप्पण तो दिये गये थे, किन्तु प्राचीन प्रति अग्नि में भस्म हो जाने के कारण उक्त पञ्जिका स्वतन्त्र रूप से नहीं दी जा सकी थी। सन् 1919 में मा.च. ग्रन्थमाला से 'अनगार धर्मामृत' भी स्वोपज्ञ टीका सहित प्रकाशित हुआ। तदनन्तर इन दोनों के और भी संस्करण प्रकाशित हुए। इनमें उल्लेखनीय हैं वर्ष 1977 और 1978 में भारतीय ज्ञानपीठ से क्रमश: प्रकाशित 'अनगार धर्मामृत' और 'सागार धर्मामृत' के संस्करण, जो 'ज्ञानदीपिका पञ्जिका', पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री कृत हिन्दी अनुवाद, उनकी विस्तत प्रस्तावना और सम्पादन से अलंकृत हैं ।

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