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जैनविद्या - 22-23 ध्यान कहलाता है (श्लोक 57)। शुद्ध स्वात्मा के अनुभव काल में राग-द्वेषादि की कल्लोलें नहीं उठतीं अन्यथा आत्मदर्शन नहीं हो पाता। इस प्रकार शुद्धात्म-भावना का फल शुद्धात्मा की प्राप्ति है। ___ शुद्ध-बुद्ध-स्वचिद्रूप परमानन्द में लीन हुआ योगी किसी भी भय को प्राप्त नहीं होता। वह निर्भय हुआ परमानन्द का ही अनुभव करता है (श्लोक 58)।
ऐसा योगी परम एकाग्रता को प्राप्त हुआ तथा अशुभ आस्रव को रोकता हुआ और उपार्जित पाप का क्षय करता हुआ जीवित रहता हुआ भी निवृत्ति-जीवन्मुक्त है (श्लोक 59)। जीवन्मुक्त-अवस्था को प्राप्त करानेवाली यह परम-एकाग्रता शुक्लध्यान की एकाग्रता है जिससे चार घातिया कर्म जलकर भस्म हो जाते हैं। ध्यान की एकाग्रता अभिनन्दनीय है। . सभी जन अध्यात्म-रहस्य में गुंफित अध्यात्म-योग-विद्या से स्वात्मा से परब्रह्मस्वरूप को प्राप्त करें, यही भावना है जो पण्डितप्रवर आचार्यकल्प आशाधरजी को इष्ट
- बी-369, ओ.पी.एम. कॉलोनी
अमलाई-484117 जिला-शहडोल (म.प्र.)