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जैनविद्या
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करे; क्योंकि जिसने वैराग्य का भली प्रकार अभ्यास किया हुआ है ऐसा आत्मा शीघ्र ही प्रशम सुख का अनुभव करता है।
पुण्य-पाप कर्म के विपाक से शरीर होता है। शरीर में इन्द्रियाँ होती हैं और इन इन्द्रियों से विषयों का ग्रहण होता है और स्पर्शादि विषय को ग्रहण करने से पुनः बन्ध होता है । इसलिए मैं इस बन्ध के कारणभूत विषयग्रहण को मूल से नाश करता हूँ । ज्ञानियों की संगति तप और ध्यान के द्वारा भी जो असाध्य है अर्थात् वश में नहीं किया जानेवाला काम शत्रु शरीर और आत्मा का भेदज्ञान से उत्पन्न हुए वैराग्य के द्वारा ही वश में किया जाता है - इस प्रकार चिन्तन करे ।
1. सागारधर्मामृत, 1.8
2. वही, 1.9
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3. वही, 1.10
4. न्यायोपात्तधनो यजन् गुणगुरून् सद्गीस्त्रिवर्ग भजत्रन्योन्यानुगुणं तदर्ह गृहिणीस्थानालयो ह्रीमयः ।
युक्ताहारविहार आर्य समितिः प्राज्ञः कृतज्ञोवशी शृण्वन् धर्मविधिं दयालुरघभी: सागारधर्मं चरेत् ॥ 1.11 ॥ वही
5. वही, 1.19
6. वही, 1.20
7. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, आचार्य समन्तभद्र, 66
8. सागारधर्मामृत, 2.2
9. वही, 2.3
10. वही, 2. 18
11. वही, 2.19
12. वही, 2.20
13. वही, 2.22
14. वही, 2.40
15. ये यजन्ते श्रुतं भक्त्या ते यजन्तेऽञ्जसा जिनम् ।
न किंचिदन्तरं प्राहुराप्ता हि श्रुतदेवयोः ॥ 2.44 ॥ वही
16. वही, 2.54
17. वही, 2.60