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जैनविद्या - 22-23 व्यसन व्यक्ति को पतन की ओर ले जाते हैं । व्यसनी सदा पतित होता है। उसका यह पतन उसकी अपनी संस्कृति, अपनी अस्मिता, अपनी आत्मा तक ही सीमित नहीं रहता है अपितु सम्पूर्ण समाज और राष्ट्र को भी अपनी गिरफ्त में ले लेता है। कोई भी व्यक्तिसमाज-राष्ट्र कितना भी ऊँचा उठ ले, विकास को प्राप्त कर ले, वह भौतिक-प्रकाश से अभिभूत भी हो सकता है जिसके समाप्त होने की सम्भावना हर क्षण बनी रहती है क्योंकि यह प्रकाश उसका अपना है ही नहीं। इस प्रकाश में अधीनता की गन्ध जो है। अधीन प्रवृत्ति कभी भी भास्वर नहीं हो सकती। आत्मप्रकाश तो व्यक्ति का अपना होता है, इसलिए निर्भीकता, तेजस्विता उसमें प्रतिपल व्याप्त रहती है। आत्मप्रकाश के प्रदीपन में कोई यदि बाधक है तो वह है व्यसन।'
जैनधर्म में व्यसन दुर्गति-गमन के हेतु स्वरूप माने गए हैं। ये घोर पाप के कारण हैं और कल्याण मार्ग में बाधक भी हैं। अस्तु, श्रावकों के लिए ये सर्वथा त्याज्य हैं। सागारधर्मामृत में मात्र व्यसनों को त्यागने की ही नहीं, उपव्यसनों अर्थात् रसायनसिद्ध करना आदि से भी दूर रहने की बात कही गई है। क्योंकि उपव्यसन भी व्यसनों की भाँति दुरंत पाप-बंध और अकल्याण का कारण है।
व्यसन के सन्दर्भ में यह बात ध्यातव्य है कि यह एक ऐसी पीड़ा है जो व्यसनी को हर क्षण सालती है । यह पीड़ा मृत्यु से भी बढ़कर है। मौत की पीड़ा को तो प्रत्येक व्यक्ति जीवन में एक ही बार भोगता/झेलता है जबकि व्यसन-पीड़ा से प्रपीड़ित व्यक्ति बार-बार मरता है, उसकी मृत्यु हर पल होती है। व्यसनी का विवेक भ्रष्ट और कुन्द हो जाता है। सद्-असद्, हित-अहित के पहिचानने-सोचने की शक्ति समाप्त हो जाती है। व्यसनी का संसार दुराचारों की नींव पर टिका होता है। विवेकशून्यता में न चाहते हुए भी वह ऐसा कार्य कर बैठता है जिसे बाद में उसे पछताने के सिवाय और कुछ हाथ नहीं लगता। वास्तव में व्यसनों के जाल में फँसे व्यक्ति के मनोभाव, बोल तथा शरीर सबकुछ दूषित-प्रदूषित होते हैं । ऐसा व्यक्ति जो कुछ सोचेगा, सुनेगा, करेगा वह सब व्यसनों पर ही केन्द्रित होगा।
स्थापित मानवीय मान्यताएँ व्यसनी के लिए खोखली/बेमानी हो जाती हैं। उसके नजरिये में सिवाय संघर्ष-द्वेष, स्वार्थ-हिंसा, कपट-कटुता और निठल्लेपन के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता है। उसका जीवन अशुभ, घोर अशुभ, शोक में ही डूबता रहता है। छोटी-छोटी बातों से वह तनावग्रस्त तथा विचलित हो जाता है। उसका धैर्य, साहस, सब समाप्त हो जाता है । ऐसा व्यक्ति हत्याएँ ही नहीं आत्महत्या तक कर बैठता है । वह जीवन से भागता है। पलायनवादी बनता है। उसका मन-मस्तिष्क विकृतियों से भर जाता है। पंडित आशाधरजी तो यहाँ तक कहते हैं कि व्यसनी का इस लोक में तो नाश होता ही है साथ ही उसको परलोक में भी निंद्य होना पड़ता है। वे आगे कहते हैं कि इतिहास में व्यसनियों के पतन की अनेक गाथायें संचित हैं। बड़े-बड़े राजे-महाराजे व्यसनों में