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जैनविद्या - 22-23 के लिए किसी तरह का कोई संकेत नहीं करना चाहिए परन्तु यदि वह भोजन के निषेध करने के लिए किसी तरह का संकेत करना चाहे तो उसमें कोई दोष नहीं है। यथा -
___ गृद्ध्यै हुंकारादिसंज्ञां संक्लेशं च पुरोऽनु च।
मुञ्चन्मौनमदन् कुर्यात्तपः संयमबृंहणम्॥ 4.34॥ पण्डितजी कहते हैं कि मौनव्रत धारण करने से भोजन की लोलुपता शान्त होने से तप की वृद्धि होती है और श्रुत ज्ञान का विनय होने से पुण्य का कारण बनता है अस्तु, श्रावक को मौनव्रत से दो प्रकार के प्रत्यक्ष लाभ मिलते हैं। यथा -
अभिमानावने गृद्धिरोधाद्वर्धयते तपः।
मौनं तनोति श्रेयश्च श्रुतप्रश्रयतायनात्॥4.35॥ इस प्रकार सागारधर्मामृत में पण्डित आशाधरजी ने श्रावकों के लिए मोक्षमार्ग को प्रशस्त करनेवाला आधार-सेतु 'चारित्रपक्ष' पर प्रकाश डालते हुए आहार-विज्ञान पर विशेष बल दिया है। श्रावक के पवित्र आचरण की सुदृढ़ नींव है। आहार की विशुद्धता, जिसे पण्डितजी ने अपने वैदुष्य अनुभव-नवनीत से सागारधर्मामृत में सरल व सरस शैली में आगमानुरूप प्रस्तुत कर सुधी श्रावकों-मुमुक्षुओं के लिए एक महनीय कार्य किया है।
- मंगलकलश
394, सर्वोदयनगर आगरा रोड, अलीगढ़-202001 (उ.प्र.)