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जैनविद्या - 22-23 रोटी, दाल, भात आदि अन्न; दूध, पानी आदि पान, पेड़े-बर्फी आदि खाद्य और पान-सुपारी आदि लेह्य - इन चारों प्रकार के आहार का त्याग अपेक्षित रहता है। यथा -
अहिंसावतरक्षार्थं मूलव्रतविशुद्धये।
नक्तं भुक्तिं चतुर्धापि सदा धीरस्त्रिधा त्यजेत् ॥4.24॥ पौराणिक दृष्टान्तों के माध्मम से पण्डितजी द्वारा सागारधर्मामृत में रात्रिभोजन-त्याग की महिमा का वर्णन भी स्पष्टतः परिलक्षित है जिसमें यह अभिदर्शित है कि रात्रि के एक पहर अर्थात् तीन घण्टे तक रात्रि भोजन त्याग करने से चांडालिनी ने अनेक पुण्यार्जन करते हुए एक सद्गृहस्थ की भूमिका का निर्वहन कर सुखों को प्राप्त किया। यथा -
चित्रकूटेऽत्र मांतगी यामानस्तमितव्रतात्।
स्वभा मारिता जातानागश्रीः सागराङ्गजा॥ 2.15॥ इसी प्रकार वनमाला का दृष्टान्त भी रात्रि भोजन करनेवाले को रात्रिभोजन-त्याग करने की प्रेरणा देता है जिसमें रात्रिभोजन को पंच पापों से भी बढ़कर महापापों में परिगणित किया गया है। यथा -
त्वां यद्युपैमि न पुनः सुनिवेश्य राम, लिप्ये बधादिकृदघैस्तदिति श्रितोऽपि। सौमित्रिरन्यशपथान्वनमालयै कं ,
दोषाशिदोषशपथं किल कारितोऽस्मिन्॥4.26॥ पण्डितजी अहर्निश भोजन के आधार पर मनुष्यों की कोटि तीन रूपों में निर्धारित करते हैं -
1. उत्तम मनुष्य 2. मध्यम मनुष्य 3. जघन्य मनुष्य
पण्डितजी के अनुसार उत्तम मनुष्य वे हैं जो मुख्यरूप से शुभकार्य करते हुए दिन में एक ही बार भोजन करते हैं। मध्यम मनुष्य मध्यम रीति से शुभ कर्म करते हुए दिन में दो बार भोजन करते हैं और जघन्य मनुष्य वे हैं जो पशुओं के समान दिन-रात खाते रहते हैं, जिन्हें रात्रि-भोजन-त्यागरूप व्रत के गुणों का कोई भान नहीं होता है। यथा
भुञ्जतेऽह्नः सकृद्वर्या द्विर्मध्याः पशुवत्परे।
रात्र्यहस्तव्रतगुणान् ब्रह्मोद्यान्नावगामुकाः॥4.28॥ पण्डित आशाधरजी ने एक ओर जहाँ भक्ष्य-अभक्ष्य के साथ दिवा भोजन के महत्त्व को दर्शाया है वहीं उन्होंने भोजन करते समय किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए