Book Title: Jain Vidya 22 23
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 124
________________ जैनविद्या - 22-23 115 फँसकर अनेक विपत्तियों के शिकार हुए हैं। उदाहरण के लिए - जुआ खेलने से महाराज युधिष्ठिर को, मांस-भक्षण करने से राजा बक को, मद्यपान करने से यदुवंशियों को, वेश्यासेवन करने से सेठ चारुदत्त को, चोरी करने से शिवभूति ब्राह्मण को, शिकार खेलने से ब्रह्मदत्त (अन्तिम) चक्रवर्ति को और परस्त्री की अभिलाषा करने से रावण को बडी भारी विपत्ति का सामना करना पड़ा। इसलिए पं. आशाधरजी स्पष्टत: निर्देश देते हैं कि एक सद्वृती गृहस्थ को दुर्गति के दुःखों के कारण और पापों के उत्पादक व्यसनों को मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से त्याग करना ही श्रेयस्कर है। जो व्यसनों का परित्याग कर देता है वह श्रावक निश्चयेन दर्शनिक श्रावक होता है। दर्शनिक श्रावक के विषय में सिद्धान्तचक्रवर्ती श्री वसुनंदि कहते हैं कि जिसने पाँचों उदुम्बरों के साथ सप्त व्यसनों का त्याग कर दिया है और सम्यग्दर्शन से जिसकी बुद्धि विशुद्ध हो रही है, वह श्रावक दर्शनिक श्रावक है। यथा - पंचुंबर सहियाई सत्तवि वसणाई जो विवज्जेइ सम्मत्तसुद्धमई सो दंसणसावओ भणिओ॥ 57॥ . पण्डित आशाधरजी भी ऐसे श्रावकों को दर्शनिक श्रावक से सम्बोधते हैं। मनुष्य को आत्मस्वरूप से विमुख रखनेवाले व्यसन अनन्त हैं किन्तु जैनधर्म में व्यसनों की यह अनन्तता सात प्रकारों में समाविष्ट है । व्यसनों के ये सात प्रकार अन्य धर्मों में भी किसी न किसी रूप में अभिव्यक्त हैं । इन धर्मों में भी ये व्यसन आत्मोन्नति में बाधक माने गए हैं, अस्तु त्याज्य हैं । व्यसनों के ये सात प्रकार अर्थात् 'सप्त व्यसन' इस प्रकार 1. जूआ खेलना, 2. मांस-भक्षण, 3. मद्यपान, 4. वेश्यागमन, 5. शिकार करना, 6. चोरी करना, 7. परस्त्रीगमन। जूआ खेलना - जीवन में श्रम करने की प्रवृत्ति का जब लोप हो जाता है और धन की लालसा बढ़ जाती है तो व्यक्ति में जूआ की लत लग जाती है। यह एक ऐसा व्यसन है जिसमें हिंसा, झूठ, चोरी, लोभ और कपट जैसे दोषों-पापों का प्राधान्य रहता है। सागार धर्मामृत में यह स्पष्ट उल्लेख है कि इन पापों से भरे हुए ऐसे जूआ के खेलने में जो अत्यन्त आसक्त है वह अपनी आत्मा को तथा जाति को अनेक आपत्तियों में डाल

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