________________
जैनविद्या - 22-23
अप्रेल- 2001-2002
113
सागारधर्मामृत में
सप्तव्यसन : रूप-स्वरूप
- डॉ. राजीव प्रचण्डिया
जैन धर्म के जाज्वल्यमान नक्षत्र के रूप में प्रतिष्ठित श्रीमत्पंडितप्रवर आशाधरजी की कृतियों में 'सागारधर्मामृत' एक श्रावक धर्म दीपक ग्रन्थ है। इसमें श्रावकों के लिए कौनसी बातें हेय और उपादेय हैं, इस तथ्य को वैज्ञानिक व तर्कसम्मत ढंग से रेखांकित करते हुए आदर्श एवं उन्नत तथा अहिंसापरक पद्धति पर आधृत धार्मिक जीवनचर्या को अंगीकार करने पर विशेष बल दिया गया है। सागार धर्मामृत में पापों का पोषक व्यसन- संकुल का भी वर्णन हुआ है जिसकी संक्षेप में चर्चा इस लेख का मूल प्रयोजन है ।
पाप / दुराचरण / बुरी आदत / खोटी आदत / लत, इन सबका एक ही अर्थ - अभिप्राय है, वह है व्यसन । इनमें संस्थित व्यक्ति व्यसनी कहलाता है । '
व्यसनों के सन्दर्भ में सागारधर्मामृत में पण्डितप्रवर श्री आशाधरजी कहते हैं कि निरन्तर उदय में आए हुए और जो किसी तरह निवारण न किए जा सकें ऐसे तीव्र क्रोध, मान, माया, लोभ, इन कषायों के निमित्त से जिससे चित्त के परिणाम मलिन हो जाते हैं अर्थात् कर्मों का दृढ़ बन्धन करने के लिए सदा तत्पर रहते हैं ऐसे उन परिणामों के द्वारा उत्पन्न हुए पापों से जो आत्मा के चैतन्य परिणामों को आवरित कर लेते हैं तथा जो मिथ्यात्व और मिथ्यात्वी जीव दोनों का उल्लंघन करते हैं, मनुष्यों को कल्याण मार्ग से च्युत रखनेवाले ऐसे पाप व्यसन कहलाते हैं । 2