Book Title: Jain Vidya 22 23
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan
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जैनविद्या - 22-23
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25. सोऽस्ति स्वदार सन्तोषी योऽन्यस्त्रीप्रकटस्त्रियौ। ___ न गच्छत्यंहसो भीत्या नान्यैर्गमयति त्रिधा ।। 4.52 || - सागारधर्मामृत 26. णिच्चं पलायमाणो तिणचारी तह णिरवराहो वि।
कह णिग्घणो हणिज्जइ आरण्णणिवासिणो वि मए । 96 ।। - वसुनन्दि श्रावकाचार 27. पापद्धौतनुमद्वधोज्झित घृणः पुत्रैऽपि दुष्टाशयः। - कर्पूर प्रकरण 28. लाटी संहिता, 2/141-148 । 29. मृगयारसिकानित्यं अरण्येपशुघातकः।
परेतांस्तान् यमभटा लक्ष्मीभूतान् नराधमान् ॥ 8-22-46 - श्रीमद्भागवत 30. सागारधर्मामृत, 2.17 31. परदव्वहरणसीलो इह-परलोए असायबहुलाओ।
पाउणइ जायणाओ ण कयावि सुहं पलोएइ ।। 101 ।। हरिऊण परस्स धणं चोरो परिवेवमाण सव्वंगो।। चइऊण णिय य गेहं धावइ उप्पहेण संतत्तो॥ 102 ।। किं केण वि दिट्ठो हं ण वेत्ति हियएण धगधंगतेण।
लहुक्कइ पलाइ पखलइ णिदं ण लहेइ भयविट्ठो ॥ 103 ॥ - वसुनंदिश्रावकाचार 32. कस्यचित् किमपि जो हरणीयम्। 36/72 - यजुर्वेद 33. 'Thou Shalt not Steal. - बाइबिल, ईसामसीह 34. चौरव्यपदेशकरस्थूलस्तेयव्रतो मृतस्वधनात् ।
परमुदकादेश्चाखिल भोग्यान्न होद्ददीत न परस्वं ॥ 4.46 ॥ - सागारधर्मामृत 35. संक्लेशाभिनिवेशेन तृणमप्यन्यभर्तृकं ।
अदत्तमाददानो वा ददानस्तस्करो ध्रुवम् ।। 4.47 ।। - वही 36. नस्वामिकमिति ग्राह्यं निधानादि धनं यतः।
धनस्यास्वामिकस्येह दायादो मेदिनीपतिः।। 4.48 ।। स्वमपि स्वं मम स्याद्वा न वेति द्वापरास्पदं ।
यदा तदाऽऽदीयमानं व्रतभंगाय जायते ॥ 4.49 ।। - वही 37. परदाराभिमर्शात्तु नान्यत् पापतरं महत्। 338/30 - वाल्मीकि रामायण 38. अनार्यः परदारव्यवहारः। - अभिज्ञान शाकुन्तलम् 39. नहीदृशमनापुण्यं लोके किंचित दृश्यते ।
यादृशं पुरुषस्येह परदारोपसेवनम्॥ 4/134 - मनुस्मृति 40. दट्ठण परकलत्तं णिब्बुद्धी जो करेइ अहिलासं ।
ण य किं पितत्थ पाइव पावं एमेव अज्जेइ ।। 112 ।। ण प कत्थ वि कुणइ रइं मिटुं पिय भोयणं ण भुंजेइ । णिदं पि अलह माणो अच्छइ विरहेण संतत्तो॥ 115 ॥

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