Book Title: Jain Vidya 22 23
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 133
________________ 124 जैनविद्या - 22-23 अह भुंजइ परमहिलं अणिच्छमाणं बलाधरेऊणं। किं तत्थ हवइ सुक्खं पच्चेल्लिउ पावए दुक्खं ॥ 118 | - वसुनन्दिश्रावकाचार 41. सागारधर्मामृत, 2.17 42. सागारधर्मामृत, 4.55 43. समरसरसरंगोद्गमृते च काचित्क्रिया न निर्वृत्तये। स कुतः स्यादनवस्थितचित्ततया गच्छतः परकलत्रं ॥ 4.54 ॥ - सागारधर्मामृत 44. दोषोहोढाद्यपि मनोविनोदार्थे पणोज्झिनः। हर्षोमर्षोदयांगत्वात्कषायो ांहसेंऽजसा ।। 3.19 ।। - वही 45. चर्मस्थमम्भः स्नेहश्च हिंग्वसंहत चर्म च। सर्वं च भोज्यं व्यापन्नं दोषः स्यादामिषव्रते ॥ 3.12 ॥ - वही 46. संधानकं त्यजेत्सर्वं दधि तक्रं द्वय होषितं। कांजिकं पुष्पितमपि मद्यव्रतमलोऽन्यथा ॥ 3.11 ।। - वही 47. त्यजेत्तौर्यत्रिकासक्तिं वृथाट्या षिङ्गसंगतिम्। नित्यं पण्यांगजात्यागीतद्रोह गमनादि च ।। 3.20 ॥ - वही 48. वस्त्रनाणकपुस्तादि न्यस्तजीवच्छिदादिकम् । ___न कुर्यात्त्यक्त पापर्द्धिस्तद्धि लोकेऽपि गर्हितम् ।। 3.22 ॥ - वही 49. दायादाज्जीवतो राजवर्चसाद्गृह्णतो धनम्। दायं वाऽपन्हुवानस्य क्वाचौर्यव्यसनं शुचि ॥ 3.21 || - वही 50. कन्यादूषणगांधर्वविवाहादि विवर्जयेत् । परस्त्रीव्यसनत्यागवत-शुद्धितिधित्सया॥ 3.23 ॥ - वही 51. व्रत्यते यदिहामुत्राप्य पायावद्य कृत्स्वयम् । तत्परेऽपि प्रयोक्तव्यं नैवं तदव्रतशुद्धये ।। 3.24 ॥ - वही ' - मंगलकलश, 394 सर्वोदयनगर, आगरा रोड अलीगढ़-202001 (उ.प्र.)

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