Book Title: Jain Vidya 22 23
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

View full book text
Previous | Next

Page 136
________________ 127 जैनविद्या - 22-23 पिप्पलोदुम्बर-प्लक्ष-वह-फल्गु-फलान्यदन्। हन्त्याणि त्रसान् शुष्काण्यपि स्वं रागयोगतः। 2.13 ॥ इसी प्रसंग में पण्डित जी आगे कहते हैं कि श्रावक को अनजान फल, जिन्हें वह नहीं जानता है, नहीं खाना चाहिए। वे कहते हैं कि ककड़ी, कचरियाँ, बेर, सुपारी आदि फलों को और मटर आदि की फलियों को विदारण किए बिना अर्थात् मध्यभाग को शोधन किए बिना खाना अनुचित है। यथा - सर्वं फलमविज्ञातं वार्ताकादि त्वदारितम्। तद्वद्भल्लादिसिम्बीश्च खान्नोदुम्बरव्रती॥ 3.14॥ जो मांस का सेवन करते हैं वे निर्दयी होते हैं, उनमें दया के भाव सदा विलुप्त रहते हैं; जो मद्यपान के शौकीन हैं वे सत्यव्रत से सदा विमुख रहते हैं तथा जो मधु और उदुम्बर फलों का सेवन करते हैं वे घातक और क्रूर होते हैं । यथा - मांसाशिषु दयानास्ति न सत्यंमद्यपायिषु। आनृशस्यनमत्र्येषुमधूदुम्बर सेविषु । इस प्रकार ये आठ प्रकार के अभक्ष्य पदार्थ सेवन करनेवाले के चित्त में दुर्गुण पैदा करते हैं। ये मन को मोहित करनेवाले होते हैं। ये पापबन्ध का कारण बनते हैं। इनमें आसक्त मनुष्य नरकादि दुर्गतियों के अनन्त दुःख भोगते हैं। जबकि एक सद्श्रावक को सदा पाप से पुण्य और पुण्य से मोक्ष की ओर अग्रसर होना चाहिए और इसके लिए उसे इंन अभक्ष्य पदार्थों का यम, नियम रूप से या जन्मभर के लिए त्याग अत्यन्त अपेक्षित है। मद्य के विषय में पण्डित आशाधरजी कहते हैं कि मद्य अत्यन्त अभक्ष्य पदार्थ है जिसके पीनेवालों के परिणाम मान, क्रोध, काम, भय, भ्रम, शोक आदि मिथ्याज्ञान से सराबोर रहते हैं तथा मद्यपायी के विचार, संयम, ज्ञान, सत्य, पवित्रता, दया, क्षमा आदि सद्गुण उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जिस तरह अग्नि का एक ही कण तृणों के समूह को नाश कर देता है। यथा - पीते यत्र रसांग जीवनिवहाः क्षिप्रं नियन्तेऽखिलाः कामक्रोधभयभ्रमप्रभृतयः सावद्यमुद्यन्ति च। तन्मद्यं व्रतयन्न धूर्तिल परास्कंदीव यात्यापदं तत्पायी पुनरेंकपादिव दुराचारं चरन्मज्जति ॥ 2.5॥ पण्डित आशाधरजी मांस को सर्वप्रकार से अभक्ष्य पदार्थों में स्वीकारते हैं। इनकी दृष्टि में मांस लोहू-वीर्य-विष्ठा जैसे घृणित पदार्थों से विनिर्मित है। वे कहते हैं कि जो सभ्य लोग बाज-कुत्ता आदि जीवों की लार मिले हुए मांस को अथवा बाज, कुत्ता आदि

Loading...

Page Navigation
1 ... 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146