Book Title: Jain Vidya 22 23
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 135
________________ 126 जैनविद्या - 22-23 योग्य हैं? और क्यों? कितना और कब इनका सेवन किया जाए? इन सबका भी सार्थक विवेचन परिलक्षित है। वर्तमान परिवेश में विभिन्न सामाजिक व धार्मिक संगठनों द्वारा समाज और राष्ट्र के अभ्युदय में तथा मानव कल्याणार्थ उत्तम आहार के प्रति जो जागरण पैदा किया जा रहा है उस दिशा में प्रस्तुत कृति में पं. आशाधरजी ने भक्ष्य-अभक्ष्य विषयक जो चिंतन दिया है वह निश्चयेन सम-सामयिक व महत्त्वपूर्ण है। इसी दृष्टि को ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत लेख 'सागारधर्मामृत में भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेचन' प्रासंगिक विषय पर संक्षेप में चर्चा करना हमें ईप्सित है। पण्डित आशाधरजी सागारधर्म के पालनार्थ जिन चौदह गुणों का उल्लेख करते हैं उनमें एक गुण युक्त-आहार-विहार से सम्बन्धित है जिसमें भोजन के सन्दर्भ में वे कहते हैं कि जिसका भोजन यथायोग्य व शास्त्रानुसार हो अर्थात् धर्म-शास्त्र में जिन पदार्थों के खाने का निषेध न किया गया हो और जिनके खाने में रत्नत्रय धर्म की हानि न होती हो, ऐसा भोजन और भोजन-विधि एक श्रावक के लिए सर्वथा ग्राह्य है। यथा - युक्ताहारविहार आर्यसमितिः प्राज्ञः कृतज्ञो वशी॥ 1.11.3॥ ___ इसी क्रम में वे श्रावक के अष्ट मूल गुणों में मद्य, मांस, मधु तथा पीपल आदि पाँच प्रकार के उदुम्बर फलों को अभक्ष्य बताते हैं क्योंकि इनके सेवन से इनमें राग करने रूप भाव-हिंसा और इनमें उत्पन्न होनेवाले जीवों का विनाश हो जाने से द्रव्य-हिंसा होती है। यथा - तत्रादौ श्रद्दधज्जनीमाज्ञां हिंसामपासितुम्। मद्यमांसमधून्युज्झेत्पंचक्षीरिफलानि च ॥ 2.2॥ उदुम्बर फलों के विषय में पण्डितजी कहते हैं कि जिनवृक्षों के तोड़ने से दूध निकलता है वे उदुम्बर फल कहलाते हैं। ये पाँच प्रकार के होते हैं, यथा - बड़, गूलर, (ऊमर), पीपल, पाकर, कठूमर (काले गूलर या अंजीर)। दूध निकलने के कारण इन फलों को क्षीर वृक्ष से भी जाना जाता है । इस प्रकार ये क्षीर वृक्ष या उदुम्बर फल तथा मद्य, मांस, मधु दोनों प्रकार की हिंसाओं से युक्त होने के कारण अभक्ष्य हैं। इन पाँच फलों को खानेवाला सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार के त्रस जीवों की हिंसा करता है क्योंकि ये जीव इनमें सदैव विद्यमान रहते हैं। इतना ही नहीं, पण्डितजी आगे कहते हैं कि इन फलों को सुखाकर खाने पर भी दोष होता है क्योंकि इनमें अधिक राग रखने से व्यक्ति अपनी आत्मा का घात करते हैं। और जो त्रस जीव उसमें मर गए हैं उनका मांस भी उसी में बना रहेगा उसका भी दोष रहेगा। इसलिए इन उदुम्बरों का हरे-सूखे दोनों रूपों में त्याग ही उचित है। इसी प्रकार सूखे मद्य, मांस, मधु के सेवन में भी यही बात चरितार्थ है। यथा -

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