Book Title: Jain Vidya 22 23
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 129
________________ 120 जैनविद्या - 22-23 होड़ अर्थात् शर्त लगाने या जूआ देखना आदि भी उसके व्रत में दोष उत्पन्न करनेवाले अतिचार हैं क्योंकि ऐसा करने से हर्ष और क्रोध उत्पन्न होता है जिससे राग-द्वेष परिणाम बनते हैं जो पाप के कारण हैं।4 पण्डितप्रवर चमड़े के बर्तन में रखा हुआ जल, घी, तेल आदि, चमड़े में लपेटी हुई या उसमें रखी हुई हींग और जो स्वाद से चलित हो गए हैं ऐसे घी आदि समस्त पदार्थों के सेवन को मांस-त्यागवत का अतिचार मानते हैं। अस्तु, वे मांस-त्याग करनेवाले को इन सब पदार्थों को त्यागने का बल देते हैं। इसीप्रकार मद्यत्याग के अतिचारों का उल्लेख करते हुए पण्डितप्रवर कहते हैं कि दर्शनिक श्रावक को अचार, मुरब्बा, दहीबड़ा, दो दिन और दो रात वासी-तिवासी दही और छाछ, कांजी तथा वे पदार्थ जिसके ऊपर सफेदसफेद फूल से आ गए हैं आदि पदार्थ नहीं खाने चाहिए क्योंकि इनमें रसकाय की अनन्त जीव राशियाँ उत्पन्न होती रहती हैं। पण्डित आशाधरजी वेश्या-त्यागवत के अतिचार प्रकरण में यह स्पष्ट लिखते हैं कि जिस श्रावक ने वेश्या-सेवन-त्याग का व्रत ले लिया है उसे गीत, नृत्य, संगीत में आसक्त नहीं होना चाहिए, किन्तु इन तीनों का सम्बन्ध जिनमन्दिर या चैत्यालय में धर्मवृद्धि के लिए है तो उसमें कोई दोष नहीं है। पण्डितप्रवर आगे कहते हैं कि बिना प्रयोजन इधर-उधर घूमना-फिरना, व्यभिचारी लोगों की संगति करना, वेश्या के घर आना-जाना, ऐसे लोगों से वार्तालाप करना, उनका आदर-सत्कार करना आदि दोषों से बचते रहने का दर्शनिक श्रावक को सदा प्रयत्न करते रहना चाहिए। पण्डित आशाधर की पापर्द्धित्यागवत के अर्थात् शिकार खेलने के अतिचार को त्यागने पर बल देते हुए कहते हैं कि दर्शनिक श्रावक को जिसने शिकार खेलने का त्याग कर दिया है उसे पंचरंगे वस्त्र, रुपया, पैसा आदि मुद्रा, पुस्तक, काष्ठ, पाषाण, धातु, दांत आदि में नाम निक्षेप अथवा 'यह वही है' इस प्रकार के स्थापना निक्षेप से स्थापन किए हुए हाथी, घोड़े आदि जीवों का छेदन-भेदन कभी नहीं करना चाहिए। इस सन्दर्भ में पण्डितजी आगे कहते हैं कि वस्त्र-पुस्तक आदि में बनाए हुए जीवों का छेदन-भेदन करना केवल शास्त्रों में ही निंद्य नहीं है किन्तु लोक-व्यवहार में भी निंद्य गिना जाता है।48 चौर्यव्यसन त्यागवत के अतिचार के अन्तर्गत पण्डितप्रवर की धारणा है कि जो दर्शनिक श्रावक देश, काल, जाति, कुल आदि के अनुसार नहीं अपितु राजा के प्रताप से दायादि के जीवित रहते हुए भी इससे गाँव, सुवर्ण आदि द्रव्य ले लेता है अथवा जो कुल के साधारण द्रव्य को भाई-दायादों से छिपा लेता है वह अचौर्यव्रत निरतिचारी कभी नहीं हो सकता। लेकिन इसके साथ इन्होंने यह भी कहा है कि यदि वह किसी दायाद के मरने पर यथायोग्य न्याय और नीति के अनुसार उसका धन ले तो उसमें कोई दोष नहीं है। पण्डित आशाधरजी परस्त्रीत्यागवत के अतिचार त्यागने के सन्दर्भ में कहते हैं कि परस्त्रीत्याग करनेवाले दर्शनिक श्रावक को परस्त्रीव्यसन के त्यागरूप व्रत को शुद्ध रखने

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