Book Title: Jain Vidya 22 23
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 127
________________ 118 जैनविद्या - 22-23 परित्याग करना ही हितकर माना गया है। वास्तव में वेश्यागमन वेश्या और वेश्याभोगी दोनों के लिए ही नहीं वरन् सम्पूर्ण समाज के लिए एक अभिशाप है। ___ सागारधर्मामृत में वेश्या को प्रकट स्त्री कहा गया है और जो पुरुष केवल पाप-भय से मन, वचन, काय से कृत, कारित अनुमोदन से भी अन्य और प्रकट स्त्री का सेवन नहीं करता है और न ही परस्त्री-लम्पट पुरुषों को सेवन करने की प्रेरणा करता है वह गृहस्थ स्वदार सन्तोषी है। शिकार करना - अत्याधुनिकता की आड़ में मानव अपनी मानवता को खोकर जब विलासी, स्वार्थी, रसलोलुप बन जाता है तो वह शिकार को अपने मनोरंजन का एक साधन चुनकर अन्ततः उसका व्यसनी बन जाता है। शिकार का व्यसन उसे अनन्तकाल.तक दुः ख के महासागर में गोते लगाने को विवश कर देता है। वह असंवेदनशील होकर भयभीत तृणभक्षी, निरपराधी एवं जंगल में रहनेवाले मृगादि को मौत के घाट उतार कर अपनी बहादुरी या दम्भभरी वीरता का परिधान पहन कर पाप-गर्त में गिर जाता है। वह इतना निर्दयी व नृशंसी बन जाता है कि वह अपने पुत्र के प्रति भी दया नहीं रख पाता। शिकारी भयंकर पापों का संचय कर बहुविध कष्ट उठाता रहता है। लाटी संहिता28 तथा श्रीमद्भागवत में यह स्पष्ट उल्लेख है कि जो शिकार के शौकीन हैं, पशुघातक हैं उन प्रेतों के सदृश नर-पिशाचों के यमदूत अपना शिकार बनाकर समाप्त करते हैं। ___पं. आशाधरजी शिकार या आखेट खेलने में हिंसा, झूठ, चोरी आदि पापों का आस्रव मानते हैं । इसलिए इन पापास्रवों से बचने के लिए प्रत्येक पाक्षिक श्रावक को इसका त्याग करने का निदेश देते हैं। वास्तव में शिकार जंगलीपन की निशानी है जो शिकारी को नरकोन्मुख करती हुई उनके विनाश का प्रमुख कारण बनती है। ___ चोरी करना - बिना इजाजत के किसी भी चीज को अपना लेना चोरी है। चोरी का जो मूलकेन्द्र है वह है परकीय वस्तु के प्रति आसक्ति/लोभवृत्ति । लोभ का घेरा व्यक्ति को पूर्णरूपेण निष्क्रिय बना देता है। उसमें अर्जन-उपार्जन की जो शक्ति है उसे क्षीण कर हथियाने जैसी कुवृत्ति सदा सजग रहती है। ___चोर में सद्गुणों का सर्वथा अभाव होता है। वह सदा भयभीत, आत्मग्लानि में डूबा हुआ सशंकित रहता है। उसे कभी आत्मतोष नहीं मिलता। वह दूसरों की नजरों में गिरे या न गिरे स्वयं अपनी नजरों में अवश्य गिर जाता है। वह इस लोक में और परलोक में तीव्र वेदनाओं को भोगता है। इस प्रकार चोरी का व्यसन जहाँ सामाजिक-राष्ट्रीय अपराध है वहीं नैतिक पतन भी है। इस एक दुर्गुण से व्यक्ति में अनके दुर्गुण स्वतः ही समा जाते हैं । अस्तु, सामाजिक-आध्यात्मिक उत्कर्ष हेतु चोरी के व्यसन का त्याग प्रथम शर्त है। वास्तव में चोरी पतन का प्रमुख सोपान है। यजुर्वेद और बाइबिल में भी इसे निषेध माना गया है।

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