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जैनविद्या - 22-23 3. सामायिक प्रतिमा 4. प्रोषधोपवास प्रतिमा 5. सचित्त विरत प्रतिमा 6. दिवाब्रह्मचर्य/रात्रिभुक्ति-त्याग प्रतिमा 7. ब्रह्मचर्य प्रतिमा 8. आरम्भ-त्याग प्रतिमा 9. परिग्रह-त्याग प्रतिमा 10. अनुमति-त्याग प्रतिमा 11. उद्दिष्ट-त्याग प्रतिमा
इन एकादश प्रतिमाओं के अनुपालन के विषय में विशेष ध्यातव्य ‘क्रम' शब्द के अभिप्राय की सार्थकता है। इससे मेरा अभिप्रेत यह है कि ये एकादश श्रेणियाँ श्रावक के क्रमिक विकास का मूलाधार हैं। श्रावक पूर्व-पूर्व की भूमिकाओं से उत्तरोत्तर भूमिकाओं में प्रवेश करता जाता है। इसका अर्थ यह है कि दूसरी प्रतिमा धारण करने से पूर्व प्रथम प्रतिमा की योग्यता होना उसके लिए परमावश्यक है। इन एकादश प्रतिमाओं को उत्तीर्ण करनेवाला श्रावक अपने जीवन के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।
यहाँ सागार धर्मामत में इन एकादश प्रतिमाओं के प्रयोग और प्रयोजन पर संक्षेप में चर्चा करना हमारा मूलाभिप्रेत है। 1. दर्शन प्रतिमा ___ जो श्रावक सम्यग्दर्शन के साथ-साथ आठ मूलगुणों को धारण करता है वह दर्शनिक कहा जाता है। इस प्रतिमा को धारण करनेवाला श्रावक सप्त व्यसनों का त्यागी तथा अष्ट मूलगुणों का धारक कहा जाता है। वह निंद्य व्यवसाय से पृथक् रहकर न्याय और नीतिपूर्वक आजीविका का उपार्जन करता है। 2. व्रत प्रतिमा __जो श्रावक अतिचार-रहित पाँच अणुव्रतों - अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह; तीन गुणवतों - दिव्रत, अनर्थदपडत्याग व्रत तथा भोगोपभोग परिमाण व्रत; चार शिक्षाव्रतों - देशव्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास व्रत तथा अतिथिसंविभाग व्रत का पालन करता है, वह वस्तुतः व्रत-प्रतिमाधारी कहलाता है।' 3. सामायिक प्रतिमा .. पूर्वोक्त दोनों प्रतिमाओं का अनुपालक श्रावक तीनों संध्याओं में विधिपूर्वक सामायिक कर तृतीय प्रतिमाधारी कहलाता है।