Book Title: Jain Vidya 22 23
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 118
________________ 109 जैनविद्या - 22-23 मांस-भक्षण करनेवाला व्यक्ति भी हिंसा से नहीं बच सकता। क्योंकि बिना प्राणिवध के मांस नहीं मिल सकता। अतः प्राणिवध के कारण मांसभक्षी व्यक्ति द्रव्यहिंसा तथा भावहिंसा दोनों का दोषी है। अत: मांस भक्षण करनेवाला चिरकाल तक संसार-परिभ्रमण करता रहता है। पं. आशाधरजी कहते हैं - प्राणिहिंसार्पितं दर्पमर्पयत्तरसं तराम्। रसयित्वां नृशंसः स्वं विवर्तयति संसृतो।। 2.8॥ ___ पुरुषार्थसिद्धयुपाय में आचार्य अमृतचन्द्रसूरि भी कहते हैं - बिना प्राणि का घात हुए मांस की उत्पत्ति नहीं होती। अत: मांस-भक्षण करने से हिंसा होती ही है - न बिना प्राणिविधातान्मां सस्योत्पत्तिरिष्यते यस्मात। मांसं भजतस्तस्मात् प्रसरत्यनिवारिता हिंसा॥ 65॥ स्वयं मरे हुए जीव के मांस में भी सतत निगोदिया जीवों की उत्पत्ति होती रहती है। अत: स्वयं मरे हुए जीव के मांस को भी कच्चा अथवा पकाकर खाने तथा स्पर्श करनेवाला व्यक्ति भी हिंसक है - हिंसा स्वयं मृतस्यापि स्यादश्नन्वा स्पृशन् पलम्। पक्वा पक्वा हि तत्पेश्यो निगोतौघसुतः सदा ।। 2.7॥ आचार्य अमृतचन्द्र सूरि ने भी पुरुषार्थसिद्धयुपाय में स्वयं मरे हुए जीवों में तथा कच्चे पके अथवा पकते हुए मांस में प्रतिक्षण निगोदिया जीवों की उत्पत्ति तथा मांस खानेवाले से उनकी हिंसा का उल्लेख किया है - यदपि किल भवति मांसं स्वयमेव मृतस्य महिसवृषभादेः। तत्तापि भवति हिंसा तदाश्रितनिगोतनिर्मथनात्।।6।। आमास्वपि पक्वा स्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु । सातत्येनोत्पादस्तजातीनां निगोतानाम् ॥ 67॥ आमां वा पक्वां वा खादति यः स्पृशति वापिशितपेशीम्। स निहन्ति सततनिचितं पिण्डं बहुजीवकोटीनाम्॥68॥ मांस खानेवाला ही नहीं अपितु मांस खाने की इच्छा रखनेवाला व्यक्ति भी कुमति का पात्र होता है। अत: पाक्षिक श्रावक को जीवनपर्यन्त के लिए मांस का त्याग अवश्य करना चाहिए। मद्य और मांस के समान मधु भी बहुत-सी मधुमक्खियों को मारकर प्राप्त होता है। मधु मधुमक्खियों का उगाल होता है, जिसमें हर समय जीव उत्पन्न होते रहते हैं। ऐसे

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