Book Title: Jain Vidya 22 23
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 119
________________ 110 जैनविद्या - 22-23 अपवित्र मधु की एक बूंद को खानेवाला व्यक्ति सात गाँवों को जलाने के बराबर पाप का भागी होता है। पं. आशाधर कहते हैं - मधुकृ दवातघातोत्थं मध्वशुच्यपि विन्दुशः खादन् वध्नात्यघं सप्तग्रामदाहाहंसोऽधिकम्॥ 2.11॥ आचार्य अमृतचन्दसूरि ने भी इसी प्रकार मधु के दोष बताये हैं।' मधु के समान ही मक्खन भी त्याज्य है। क्योंकि मक्खन में भी दो मुहूर्त के बाद सम्मूर्च्छन जीवों की उत्पत्ति हो जाती है। जो व्यक्ति दो मुहूर्त के बाद मक्खन का सेवन करता है वह भी हिंसा से नहीं बच सकता। मधुवन्नवनीतं च मुञ्चेत्तत्रापि भूरिशः। द्विमुहूर्तात्परे शश्वत्संसजन्त्यंगिराशयः ॥ 2.12॥ पाँच उदम्बर फलों के खाने में भी द्रव्यहिंसा और भावहिंसा दोनों प्रकार की हिंसा : होती है । इन पाँच उदम्बर फलों में वे हरे हों अथवा सूखे हुए, दोनों में ही त्रसजीवों की उत्पत्ति होती रहती है। अत: उक्त देनों फलों का सेवन करनेवाला द्रव्यहिंसा का ही दोषी नहीं होता अपितु रागभाव की अधिकता के कारण भावहिंसा का भी दोषी होता है - पिप्पलोदुम्बर-प्लक्ष-वट फल्गु-फलान्यदन्। हन्त्यामा॑णि त्रसान् शुष्काण्यपि स्वं रामयोगतः। 2.13 ॥ तीन मकार तथा पाँच उदम्बर फलों के समान ही रात्रिभोजन तथा अनछने जल को पीने में भी प्राणिवध तथा राग की अधिकता के कारण द्रव्य और भाव दोनों प्रकार की हिंसा होती है। अतः रात्रिभोजन तथा अनछने जल का भी पाक्षिक श्रावक को त्याग कर देना चाहिए - रागजीवबधापायभूयस्त्वात्तद्वदुत्सृजेत्। रात्रिभक्तं तथा युज्यान्न पानीयमगालितम्॥ 2.14॥ आचार्य अमृतचन्द्रचूरि ने भी सूर्यास्त के बाद भोजन करनेवालों को जीवहिंसा का दोषी बताया है। वे कहते हैं - अर्कालोकेन विना भुञ्जानः परिहरेत्कथंहिंसाम्। अपिबोधितप्रदीपो भोज्यजुषां सूक्ष्मजीवानाम्॥ जिनागम का मूल है जिओ और जीने दो। अतः सभी प्राणियों पर दया भाव रखना चाहिये।

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