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जैनविद्या - 22-23 मद्यमांसमधुत्यागैः सहाणुव्रतपञ्चकम्।
अष्टौ मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमाः। 66॥ किसी-किसी ने मधुत्याग के स्थान पर जुआ के त्याग का आदेश दिया है। पं. आशाधरजी पर-भव का उल्लेख करते हुए कहते हैं -
अष्टैतान् गृहिणां मूलगुणान स्थूलवधादि वा।
फलस्थाने स्मरेद् द्यूतं मधुस्थाने इहैव वा॥ 2.3॥ पं. आशाधरजी ने अन्यत्र आगम के अनुसार मद्य-त्याग, मांस-त्याग, मधु-त्याग, रात्रि भोजन का त्याग, पाँच उदम्बर फलों का त्याग, अर्हन्त भगवान को नमस्कार करना, जीवों पर दया करना तथा जल छानकर पीना इस प्रकार आठ मूलगुणों का भी उल्लेख किया
मद्यपलमधुनि शासन पञ्चफलीविरतिपञ्चकाप्तन्नुती।
जीवदया जलगालनमिति च क्वचिदष्टमूलगुणा॥ 2.18॥ सर्वप्रथम मद्यपान का दोष बताते हुए पं. आशाधरजी कहते हैं - यदेकबिन्दोः प्रचरन्ति जीवाश्चेत्तत् त्रिलोकीमपि परयन्ति। यद्विक्लवाश्चेमममुं च लोकं यस्यन्ति तत्कश्यमवश्यमस्येत्॥ 2.4॥
पीते यत्र रसाङ्गजीवनिवहाः क्षिप्रं म्रियन्तेऽखिलाः।
कामक्रोधभयभ्रमप्रभृतयः सावद्यमुद्यन्ति च ॥ 2.5॥ मदिरा की एक बूंद में इतने जीव होते हैं कि वे तीनों लोक में फैल जाते हैं, मदिरा पान करनेवाले की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और वह इस लोक में तो दुःखी होता ही है, जीवहिंसा के दोष से परलोक में भी दुःख का भाजन होता है। मदिरापान करने से उस मदिरा में प्रतिपल उत्पन्न होनेवाले जीवों का घात होता है । इसके अतिरिक्त काम, क्रोधभरा भ्रम आदि विकार उत्पन्न होते हैं, जिनसे अपने भावप्राणों का भी घात होता है। इस प्रकार मदिरापान करनेवाले से द्रव्यहिंसा और भावहिंसा दोनों की होती हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र सूरि ने भी पुरुषार्थसिद्धयुपाय में मदिरापान को हिंसा का कारण बताते हुए कहा है -
रसजामां च बहूनां जीवानां योनिरिष्यते मद्यम्।
मद्यं भजतां तेषां हिंसा संजायतेऽवश्यम्॥ 63 ।। ___ मदिरा बहुत से जीवों को उत्पन्न करनेवाली है। अतः मदिरापान करनेवालों से उन जीवों की हिंसा अवश्य होती है।