Book Title: Jain Vidya 22 23
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 115
________________ 106 जैनविद्या - 22-23 विश्वासघात, चोरी आदि निन्द्यवर्गों से धन का उपार्जन नहीं करता है वह 'न्यायोपात्तधन' है। 2. यजन् गुणगुरून् से तात्पर्य है जो व्यक्ति गुणों में महान् व्यक्तियों की पूजा करता है, उनका सम्मान करता है। गुणों में महान् व्यक्ति वही है जो सदाचारी है, सज्जन है, उदार है, दयालु है, अपना तथा पर का उपकार करनेवाला है, ऐसे व्यक्तियों के प्रति सम्मान प्रदर्शित करना सदगृहस्थ का कर्तव्य है। माता-पिता तथा आचार्य भी गुरु हैं, उनकी सेवा करना, उनको प्रणाम करना, उनका आदर-सत्कार करना सद्गृहस्थ का लक्षण है। 3. सद्गी से ताप्तर्य है जिसके वचन दूसरों की निन्दा अथवा दूसरों के हृदय को दुःख देनेवाले नहीं हैं, जो कटुवचन, असत्य वचन तथा गर्हित वचन नहीं बोलता है, जो सदैव हितमित-प्रिय वचन बोलनेवाला है। 4. अन्योन्यानुगुणं त्रिवर्गं भजन - जो धर्म-अर्थ और काम तीनों का सेवन करते हुए उनमें विरोध नहीं आने देता, जो सांसारिक दृष्टि से अर्थ और काम का सेवन करते हुए भी धर्मविरुद्ध आचरण नहीं करता है। पं. आशाधरजी ने अन्यत्र भी कहा है - धर्मं यशः शर्म च सेवमानाः केऽप्येकशोजन्मविदुः कृतार्थम्। अन्ये द्विशोः विद्म वयं त्वमोघान्यहानि यान्ति त्रयसेवयैव॥ 1.4॥ 5. तदर्हगृहिणीस्थानालयो - जिसकी पत्नी कुलीन तथा सुसंस्कृत है और उसके धर्म, अर्थ, काम के सेवन में सहयोग देनेवाली है। जो ऐसे स्थान तथा घर में रहता है, जहाँ रहकर अपने धर्म, अर्थ और काम का सेवन सरलतापूर्वक कर सके, वह 'तदर्हगृहिणीस्थानालयः' है। 6. ह्रीमय - जो लज्जागुण से युक्त है अर्थात् जो परिवार और समाज में रहकर ऐसा कोई निन्द्यवार्य नहीं करता, जिससे उसे लज्जित होना पड़े। ____7. युक्ताहारविहार - जिसका आचरण तथा भोजन दोनों समीचीन हैं । जो सदैव सादा और सुपाच्य भोजन करता है तथा ऐसा कोई कार्य नहीं करता जो अपने अथवा दूसरों के लिए घातक है। 8. आर्यसमिति - जो सदैव सज्जनों की संगति में रहता है, जो हिंसक-चोर-जुआरीशराबी-वेश्यागमी आदि दुष्ट पुरुषों की संगति से दूर रहता है। 9. प्राज्ञ - जो हिताहित का विवेक रखता है, विचारपूर्वक कार्य करता है। 10. कृतज्ञ - जो दूसरों द्वारा किये हुए उपकार को मानता है, स्वीकार करता है।

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