Book Title: Jain Vidya 22 23
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 104
________________ 95 जैनविद्या - 22-23 सुखामृत के समुद्र में अवगाहन-रूप जो विशेष अवस्था है, अर्थात् सांसारिक अवस्था के विपरीत आत्मिक अवस्था है उसकी प्राप्ति सेवाफल है। इसे थोड़ा और स्पष्ट करते हुए पं. आशाधर ने टीका में कहा है - राजा आदि बड़े जनों के पास आनेवाले सेवक को दो फलों की प्राप्ति होती है - प्रथम दर्शन में राजा उसे ग्राम, सोना, वस्त्र आदि देता है। यह दृष्टिफल अथवा राजदर्शन का फल है और सेवा करने पर राजा उसे सामन्त आदि का पद प्रदान करता है। यह सेवाफल है। इसीप्रकार धर्म के सेवकों को भी दो फलों की प्राप्ति होती है - उसे मनःप्रसादक सुख प्राप्त होता है जो उसका दृष्टिफल है, यानी धर्मविषयक श्रद्धा से प्राप्त पुण्यफल। सांसारिक सुख उसी का फल है तथा धर्म-सेवन से निज शुद्धात्मतत्त्व की भावना के फलस्वरूप जो शुद्धात्म-स्वरूप की प्राप्ति होती है वह अनन्त सुख का समुद्र-रूप सेवाफल है। इसीप्रकार, धर्म का मुख्यफल मोक्ष की प्राप्ति है और आनुषंगिक फल है सांसारिक सुख की प्राप्ति। इस तरह 'अनगार धर्मामृत' के प्रथम भाग के प्रथम अध्याय में धर्म की बहुकोणीय विवेचना की गई है। द्वितीय अध्याय में मोक्ष का विशद निरूपण करने के साथ ही विभिन्न प्रकार के मदों के त्याग का उपदेश किया गया है और फिर उपगूहन, स्थितिकरण, विनय आदि गुणों को अपनाने के साथ ही हिंसा-अहिंसा का माहात्म्य समझाया गया है। आगे के शेष सात अध्यायों में त्रस जीव, पंच महाव्रत, कामदोष, शील, संयम, तप, गुप्ति, चारित्र, मुनि-आहार, अन्तराय, द्रव्यशुद्धि, भावशुद्धि, मायाचार, परीषह, उपवास, विनयतप, वैयावृत्त्य, पंच नमस्कार, षडावश्यक, सामायिक वन्दना, जिनमुद्रा, कायोत्सर्ग, स्वाध्याय, अष्टमी और पक्षान्त की क्रियाविधि, सिद्ध प्रतिमा आदि की वन्दना-विधि, चैत्यदर्शन और क्रिया-प्रयोग-विधि, प्रतिक्रमण-प्रयोगविधि, प्रतिमास्थित मुनि की क्रियाविधि आदि तमाम जैनाचार के धार्मिक तत्त्वों का आकलन किया गया है। अन्तिम नवम अध्याय में तो पं. आशाधर ने एक महान् कर्मकाण्डी के रूप में अपने पाण्डित्य का परिचय दिया है। पं. आशाधर के कालजयी धर्मग्रन्थ 'धर्मामृत' के दूसरे भाग 'सागारधर्मामृत' के प्रधान सम्पादकीय में सागार या गृहस्थ के धर्म की विशद चर्चा उसकी निवृत्तिमूलकता के सन्दर्भ में की गई है, जिसका आशय है कि निवृत्तिप्रधान साधुमार्ग को अपनाये बिना मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं है। मोक्ष ही परम पुरुषार्थ है और उसे साग्रह प्राप्त करना प्रत्येक जीव का मुख्य कर्त्तव्य है। अतएव, प्रत्येक व्यक्ति को निवृत्तिमार्ग का पथिक बनाने के लिए ही जैनधर्म में गृहस्थ-धर्म या सागार-धर्म का उपदेश किया गया है। सागार-धर्म का उपदेश करते हुए पं. आशाधर ने (सागारधर्मामृत में) कहा है -

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