Book Title: Jain Vidya 22 23
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 105
________________ 96 . जैनविद्या - 22-23 अनाद्यविद्यादोषोत्थचतु:संज्ञाज्वरातुराः। शश्वत्स्वज्ञानविमुखाः सागारा विषयोन्मुखाः॥ 1.2॥ ___अर्थात्, संसार के विषय-भोगों को त्याज्य जानते हुए भी जो मोहवश उन्हें छोड़ने में असमर्थ है, वह गृहस्थ-धर्म के पालन का अधिकारी होता है। अत: गृहस्थाश्रम प्रवृत्ति-रूप होते हुए भी निवृत्ति का शिक्षणालय है। त्याग की भूमिका अपनाये बिना गृहस्थाश्रम चल नहीं सकता। माता-पिता के त्याग के बिना सन्ततियों का उत्कर्ष-अभ्युदय कदापि सम्भव नहीं है। माता-पिता स्वयं कष्ट में रहकर अपनी सन्तान को सुखी देखने का प्रयत्न करते हैं। ___ 'सागार धर्मामृत' के प्रथम अध्याय का प्रारम्भ गृहस्थ (सागार) के लक्षण से प्रारम्भ होता है। लक्षण इस प्रकार है - नरत्वेऽपि पशूयन्ते मिथ्यात्वग्रस्तचेतसः । पशुत्वेऽपि नरायन्ते सम्यक्त्वव्यक्तचेतसः॥ 1.4॥ अर्थात्, जिनका चित्त मिथ्यात्व से ग्रस्त है, वे मनुष्य होते हुए भी पशु के समान आचरण करते हैं और जिनकी चित्तवृत्ति या चेतना सम्यग्दर्शन से समलंकृत हो गई है, वे सम्यग्दृष्टि से सम्पन्न होने के कारण पशु होते हुए भी मनुष्य के समान आचरण करते इस भाग में कुल आठ अध्याय हैं । इस प्रकार पं. आशाधर का 'धर्मामृत' ग्रन्थ कुल सत्रह अध्यायों में परिवेषित हुआ है। उनके द्वारा लक्षित 'सागार' शब्द में सभी गृहस्थ श्रावकों का अन्तर्भाव हो गया है। मगर, गृहस्थों में सम्यग्दृष्टि और देशसंयमी भी आते हैं। अत: पं. आशाधरजी ने 'सागार' के दूसरे लक्षण में 'प्रायः' पद दिया है - अनाद्यविद्या निस्यूतां ग्रन्थसंज्ञामपासितुम। अपारयन्तः सागाराः प्रायो विषयमूर्च्छिताः॥ 1.3॥ अर्थात्, सागार या गृहस्थ, बीज और अंकुर की तरह अनादि और अविद्या के साथ अविनाभाव रूप में परम्परा से चली आनेवाली परिग्रह-संज्ञा का छोड़ने में असमर्थ और प्रायः विषयों में विमूर्च्छित होते हैं। 'प्रायः' का अर्थ होता है - 'बहुशः' या 'बहुत करके'। चरित्रावरण कर्म के उदय से सम्यग्दृष्टि-सम्पन्न जीवों में भी इस प्रकार का विकल्प, यानी कामिनी आदि विषयों में 'ये मेरे भोग्य हैं', 'मैं इनका स्वामी हूँ' इस प्रकार का ममकार और अहंकार पाया जाता है। किन्तु जन्मान्तर में किये गये 'रत्नत्रय' के अभ्यास के प्रभाव से इस जन्म में साम्राज्य

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