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जैनविद्या - 22-23
जब तक विषय सेवन में नहीं आए तब तक के लिए उसका त्याग करें - जब तक विषय सेवन करने में नहीं आते हैं, तब तक उन विषयों का अप्रवृत्ति रूप से नियम करे अर्थात् जब तक मैं इन विषयों में प्रवृत्ति नहीं करूँगा तब तक मुझे इनका त्याग है, ऐसा नियम करें। यदि कर्मवश व्रतसहित मर गया तो परलोक में सुखी होता है।
भलीभाँति सोच-विचार कर नियम लेना चाहिए - देश, काल आदि को देखकर व्रत लेना चाहिए। ग्रहण किये हुए व्रतों का प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिए। मदावेश से अथवा प्रमाद से व्रतभंग होने पर शीघ्र ही प्रायश्चित्त लेकर पुनः व्रत ग्रहण करना चाहिए।
हिंसक प्राणी का, सुखी-दुःखी प्राणी का घात न करें - कोई कहते हैं कि सर्पादि किसी एक हिंसक प्राणी का घात करने से बहुत से जीवों की रक्षा होती है, यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि जो हिंसक जीव को मारता है वह भी तो हिंसक है, फिर कोई उस हिंसक को भी मारना चाहेगा! वह मारनेवाला भी हिंसक होगा। इस प्रकार अतिप्रसङ्ग दोष प्राप्त होता है।
कोई कहते हैं कि सुखी प्राणी को मारना चाहिए; क्योंकि सुखी प्राणी मरकर परभव में भी सुखी होता है । ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि सुखी प्राणी को मारने से वर्तमान में प्रत्यक्ष सुख का नाश होता है और वह दुर्ध्यान से मरकर दुर्गति में भी जा सकता है। अतः सुखी प्राणी को भी नहीं मारना चाहिए। ___ कोई कहते हैं कि दुःखी जीव को मार देना चाहिए, जिससे वह दुःख से मुक्त हो जायगा; ऐसा विचार कर दुःखी जीवों को मारना भी ठीक नहीं है । कयेंकि तिर्यञ्च-मानुष सम्बन्धी दु:ख तो अल्प हैं। उन स्वल्प दुःख का नाश करने के विचार से दुःखी जीव का घात किया और वह मरकर नरक में गया तो महादु:खी होगा, अत: दुःखी को भी नहीं मारना चाहिए। पं. आशाधरजी ने कहा है -
हिंस्रदुःखिसुखिप्राणि घातं कुर्यान्न जातुचित्।
अतिप्रसङ्गश्वभ्रार्ति सुखोच्छेदसमीक्षणात्॥ 2.83 ॥ अतिप्रसङ्ग, नरक सम्बन्धी दु:ख तथा सुख का उच्छेद देखा जाता है, इसलिए कल्याणेच्छुक मानव कभी भी हिंसक, दु:खी तथा सुखी किसी भी प्राणी का घात न करे।
देशसंयमी के तीन भेद - देशसंयमी तीन प्रकार का होता है - प्रारब्ध, घटमान और निष्पन्न । प्रारब्ध का अर्थ उपक्रान्त है अर्थात् शुरू किया है जिसने । घटमान का अर्थ है - ग्रहण किए हुए व्रतों का निर्वाह करनेवाला और निष्पन्न का अर्थ पूर्णता को प्राप्त । सारांश