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जैनविद्या - 22-23
प्राणी के अंग की अपेक्षा मांस और अन्न में समानता होते हुए भी धर्मात्मा के द्वारा अन्न खाने योग्य है, किन्तु मांस खाने योग्य नहीं है; जैसे - स्त्रीत्वरूप सामान्य धर्म की अपेक्षा स्त्री और माता में समानता होने पर पुरुषों के द्वारा स्त्री भोग्य है, माता भोग्य नहीं है ।
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निम्न जाति का व्यक्ति भी श्रावक धर्म धारण करने का अधिकारी है - उपकरण, आचार और शरीर की पवित्रता से युक्त निम्न जाति का व्यक्ति भी जिनधर्म सुनने का अधिकारी है; क्योंकि जाति से हीन भी आत्मा कालादिलब्धि के आने पर श्रावकधर्म की आराधना करनेवाला होता है । 13
गृहस्थ को चिकित्साशाला, अन्न तथा जल का वितरण करने का स्थान तथा वाटिकादि बनवाने का विधान - पाक्षिक श्रावक द्वारा दुःखी प्राणियों का उपकार करने की इच्छा से चिकित्साशाला के समान दया के विषयभूत अन्न और जल के वितरण करने के स्थान को बनवाने तथा बगीचा आदि का बनवाना भी दोषाधायक नहीं है। 14
जिनदेव और जिनवाणी में कोई अन्तर नहीं है - जो भक्तिपूर्वक जिनवाणी की पूजा करते हैं वे मनुष्य वास्तव में जिनेन्द्र भगवान की पूजा करते हैं; क्योंकि ( गणधरदेव ने) जिनवाणी और जिनेन्द्रदेव में कुछ भी अन्तर नहीं कहा है। 15
जैनों के चार भेद - नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव की अपेक्षा जैन चार प्रकार के होते हैं । नाम से और स्थापना से भी जैन उत्कृष्ट पात्र के समान आचरण करते हैं । द्रव्य से वह जैन पुण्यवान् पुरुषों को ही प्राप्त होता है । परन्तु भाव से जैन तो महाभाग्यवान् पुरुषों के द्वारा ही प्राप्य है । 16
गृहस्थ सुकलत्र के साथ विवाह करे - धर्मसन्तति, संक्लेशरहित रति, वृत्त - कुल की उन्नति और देवादि की पूजा को चाहनेवाला श्रावक यत्नपूर्वक प्रशंसनीय उच्चकुल की कन्या को धारण करे अर्थात् उसके साथ विवाह करे ।17 योग्य स्त्री के बिना पृथ्वी, सोना आदि का दान देना व्यर्थ है। जड़ में कीड़ों के द्वारा खाए हुए वृक्ष में जल के सींचने से क्या उपकार है? अर्थात् कुछ नहीं ।
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ज्ञानी और तपस्वी दोनों की पूजा करें तप का कारण होने से ज्ञान पूज्य है। ज्ञान के अतिशय में कारण होने से तप पूजनीय है। मोक्ष का कारण होने से दोनों ही पूज्य हैं । गुणानुसार ज्ञानी और तपस्वी भी पूजनीय हैं। "
मुनि बनाने का यत्न करें - सद्गृहस्थ जगत् के बन्धु जिनधर्म की सत्प्रवृत्ति चलाने के लिए मुनि बनाने का प्रयत्न करें तथा जो वर्तमान में मुनि हैं, इनका श्रुतज्ञानादिक गुणों के द्वारा उत्कर्ष बढ़ाने का प्रयत्न करें 120