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जैनविद्या -22-23
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देनेवाले गुरु जुगनुओं के समान कहीं-कहीं पर दिखते हैं । अर्थात् सब जगह नहीं मिलते हैं ।
इस पञ्चमकाल में भरतक्षेत्र में भद्रपरिणामी मिथ्यादृष्टि को भी अच्छा मानते हैं अर्थात् उपदेश देने योग्य मानते हैं, सम्यग्दृष्टियों के मिलने पर तो कहना ही क्या; क्योंकि सुवर्ण के नहीं प्राप्त होने पर सुवर्ण पाषाण की प्राप्ति के लिए कौन पुरुष इच्छा नहीं करेगा? अपितु इच्छा करेगी ही ।'
धर्म में स्थित होने पर भी मिथ्यात्वकर्म की मन्दता से समीचीन धर्म से द्वेष नहीं करनेवाला भद्र कहा जाता है । वह भद्र द्रव्यनिक्षेप की अपेक्षा अर्थात् भविष्यकाल में सम्यक्त्व गुण की प्राप्ति के योग्य होने से उपदेश देने योग्य है, परन्तु भविष्य में सम्यक्त्व की प्राप्ति के योग्य नहीं होने से अभद्र उपदेश देने के योग्य नहीं है ।
जिसप्रकार वज्र की छिद्र करनेवाली सूची से छेद को प्राप्तकर कान्तिहीन मणि डोरे की सहायता से कान्तियुक्त मणियों में प्रवेश कर जाती है तो कान्तिहीन होते हुए भी कान्तिमान् मणियों की संगति से उन (कान्तिमान मणि) के समान मालूम पड़ती है । उसी प्रकार सद्गुरु के वचनों के द्वारा परमागम के जानने के उपाय स्वरूप सुश्रूषादि गुणों को प्राप्त होनेवाला भद्र मिथ्यादृष्टि जीव यद्यपि अंतरंग में मिथ्यात्वकर्म के उदय के कारण यथार्थ श्रद्धान से हीन है तो भी कान्तिमान मणिरूपी सम्यग्दृष्टियों के मध्य में सांव्यवहारिक जीवों को सम्यग्दृष्टि के समान प्रतिभासित होता है ।
गृहस्थ धर्म का धारक - सागारधर्मामृत में गृहस्थ धर्म को धारण करनेवाले के जो लक्षण निर्धारित किए गए हैं, उनमें पहला लक्षण है -
न्यायोपात्तधन - अर्थात् उसे न्याय से धनोपार्जन करनेवाला होना चाहिए। आज के श्रावक प्राय: इस लक्षण को भूलकर येन-केन-प्रकारेण धनोपार्जन कर अपने को सुखी मानना चाहते हैं, किन्तु अन्यायोपार्जित धन से कोई व्यक्ति सुखी नहीं हो सकता ।
सद्गृहस्थ के अन्तिम लक्षण में उसे अघभी - पाप से डरनेवाला कहा गया है। आज लोक पाप से भय नहीं मानते हैं। अनेक ऐसे हैं, जो पाप को पाप ही नहीं मानते हैं। ऐसे लोगों के लिए यह लक्षण बहुत उपयोगी है।
पक्ष, चर्या और साधन के स्वरूप पण्डितप्रवर आशाधरजी ने पक्ष, चर्या और साधन का जो स्वरूप निर्धारित किया है, वह उनका अपना मौलिक चिन्तन है, तथापि जैनागम के साथ उसकी किसी प्रकार की विसंगति नहीं है। धर्मादि के लिए मैं संकल्पपूर्वक त्रस प्राणियों का घात नहीं करूँगा, इस प्रकार की प्रतिज्ञा करके मैत्री, प्रमोद
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