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जैनविद्या - 22-23
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मानकर उसकी वृद्धि-हानि में अपनी वृद्धि-हानि मानता रहा ( श्लोक 48-49 ) । इसी प्रकार स्व- - स्त्री, पुत्रादि के शरीर को अपना मानकर उनके सुख-दुख को अपना सुखदुख समझ कर भोगा है ( श्लोक 50 ) | अब मुझे अपनी भूल का ज्ञान हुआ और अब मैं भेद-विज्ञान से अपने तथा दूसरों के आत्मा को आत्मरूप से तथा देह को देहरूप से जानता हुआ निर्विकार साम्य सुधा का आस्वादन कर रहा हूँ (श्लोक 51 ) ।
आत्मयोगी की इन्द्रियदशा
आत्मानुभवी योगी का चित्त वस्तुतत्व के विज्ञान से पूर्ण और वैराग्य से व्याप्त रहता है, तब इन्द्रियों की अनिर्वचनीय दशा हो जाती है । उसकी इन्द्रियाँ न मरी हैं, न जीती हैं, न सोती हैं और न जागती हैं (श्लोक 52 ) । जागृत रहकर भी वे इन्द्रिय-विषयों में प्रवृत्त नहीं होतीं और विषय अ-ग्रहण में निद्रा जैसी परवशता का कोई कारण नहीं होता । आत्मयोगी का उपयोग तत्व - ज्ञान और वैराग्य के सन्मुख बना रहता है अत: उपयोग की अनुपस्थिति में वे जागृत रहकर भी मृत समान बनी रहती हैं। योगी की इस रहस्यमयता के कारण कर्मोदयजन्य भोग निर्जरा का निमित्त बनता है ।
पुरातन संस्कारों के जाग उठने से चित्त में संकल्प-विकल्प जागृत होने पर भी अन्तरंग में विशद ज्ञानरूप शुद्ध उपयोग की अविच्छिन्न धारा प्रवाहित होती रहेगी और क्या वह कल्पना स्थित किसी वस्तु का स्मरण करेगी? अर्थात् नहीं करेगी ? (श्लोक 53 ) ।
स्वानुभूति - वृद्धि की भावना
आत्मयोगी अपनी स्वानुभूति की वृद्धि की उत्तरोत्तर भावना भाता है और अपने आपको अनुभव करता हुआ राग- - द्वेषादि हेय को छोड़कर आदेय, जो निजस्वरूप है, को ग्रहण कर रत्नत्रयात्मक निज भाव का भोक्ता बना रहे, ऐसी भावना करता है ( श्लोक 54 ) । शुद्धोपयोग कैसे होता है? किस क्रम से होता है ?
शुद्ध-स्वात्मा सर्वप्रथम अशुभ उपयोग के त्याग सहित श्रुताभ्यास के द्वारा शुभ उपयोग का आश्रय करता है, पश्चात् शुद्ध उपयोग में ही अधिकाधिक स्थिर रहूँ, ऐसी श्रेष्ठ निष्ठा, भावना भाता है और उसे धारण करता है ( श्लोक 55 ) । इस प्रकार अशुभ भावों के त्याग और शास्त्राभ्यास (स्वाध्याय) रूप शुभ भावों की प्रवृत्ति सहित शुद्ध उपयोग होता है । अशुभ से निवृत्ति और व्रत-समिति-गुप्ति रूप शुभ में प्रवृत्ति का नाम व्यवहार चारित्र है । शुद्ध उपयोग शुद्धात्मा के आश्रयपूर्वक होता है । अत: शुद्ध उपयोग हेतु शुद्धात्मा की भावना भाना इष्ट है। शुद्धात्मभावना का फल
जो शुद्ध स्वरूप परमात्मा है, 'वही शुद्ध स्वरूप मैं हूँ', इस प्रकार बारम्बार भावना करनेवाले आत्म के शुद्ध स्वात्मा में जो लय बनता है, वह अनिर्वचनीय योग या समाधिरूप