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जैनविद्या - 22-23 चिन्मयरूप में प्रकाशमान होता है (श्लोक 20) । इस प्रकार हृदय में विकल्पों के न उठने पर - विकल्पों के रुकने पर आत्मदर्शन होता है। यह आत्मदर्शन की एक पद्धति है। ___वह आत्मज्योति अनन्त पदार्थों के आकार-प्रसार की भूमि होने से विश्वरूप है और छद्मस्थों के लिए अदृश्य-अलक्ष्य होती हुई भी केवल-चक्षुओं से देखी जाती है (श्लोक 21)। यह आत्म-ज्योति स्वभाव से विश्वरूपा है। आत्म-ज्योति का लक्षण - अंतरवर्ती उपयोग
वह आत्म-ज्योति क्या है? इसके समाधान में पं. आशाधरजी कहते हैं कि 'उस आत्म-ज्योति का लक्षण अहंता-दृष्टा के लिए उसका अंतरवर्ती उपयोग है; क्योंकि आत्मा का उपयोग लक्षण नित्य ही अन्य अचेतनद्रव्यों के लक्षणों से भिन्न है (श्लोक 22)। उपयोग का 'अन्तर्वर्ती' विशेषण आत्मा के साथ उसके तादात्म्य-आत्माभूतता का सूचक है। इसी तथ्य को मुनि रामसिंह ने दोहापाहुड (गाथा 177) में कहा है कि जैसे नमक पानी में विलीन हो जाता है वैसे ही यदि चित्त निज शुद्धात्मा में विलीन हो जाये तो जीव समरस रूप समाधिमय हो जाये।
वस्तु-भेद के न्याय के अनुसार जिन दो में परस्पर लक्षण-भेद होता है वे दो एकदूसरे से भिन्न होते हैं, जैसे - जल और अनल (अग्नि)। स्वात्मा और राग-द्वेष-मोह व शरीरादिक में यह लक्षणभेद युक्ति-सिद्ध है (श्लोक 23)।
चिन्मय आत्मा के स्व और अर्थ-ग्रहणरूप व्यापार को उपयोग कहते हैं। आत्मा दर्शन और ज्ञान-उपयोग रूप है। श्रुति की दृष्टि से शब्दगत को दर्शनोपयोग और अर्थगत को ज्ञानोपयोग कहते हैं (श्लोक 24)।
भाव या अनुष्ठान के अनुसार उपयोग के तीन भेद हैं - अशुभ, शुभ और शुद्ध उपयोग। राग-द्वेष-मोह के भाव के द्वारा आत्मा की जो क्रिया-परिणति होती है, वह अशुभ उपयोग है। केवली-प्रणीत धर्म में अनुराग रखने रूप जो आत्मा की परिणति होती है, वह शुभ उपयोग है। तथा अपने चैतन्य स्वरूप में लीन होने रूप आत्मा की जो परिणति बनती है, वह शुद्ध उपयोग है (श्लोक 56)। शुभ-अशुभ से परे शुद्ध-उपयोग परम समाधि रूप है। आत्म-शुद्धि का सूत्र : शुद्ध उपयोग
राग-द्वेष-मोह से आत्मा का उपयोग मलिन और अशुद्ध होता है ।शुद्ध-उपयोग से आत्मा की शुद्धि होती है। शुद्ध उपयोग वह कहलाता है जो राग-द्वेष-मोहरहित होता है। इसी की पुष्टि में कहते हैं कि 'जो ध्यानी पुरुष स्वयं अपने शुद्ध-आत्मा में राग, द्वेष तथा मोह से रहित शुद्ध उपयोग को धारण करता है वह शुद्धि को प्राप्त होता है (श्लोक 25)।'