________________
51
जैनविद्या 22-23
है। निर्वात् आत्मा एक उस चिरन्तन सुख में निमग्न हो जाती है जिसे छोड़कर उसे पुन: जगत में भ्रमण करने नहीं आना होता ।" समूचे कर्मों से छुटकारा होना 'मोक्ष' है - 'कृत्स्न कर्म विप्रमोक्षो मोक्षः19 और सब कर्मों का बुझ जाना 'निर्वाण' है । 20
-
अर्हत - अर्हत सकल परमात्मा कहलाते हैं । उनके शरीर होता है । वे दिखायी देते हैं। सिद्ध निराकार हैं, उनके कोई शरीर नहीं होता । उन्हें हम देख नहीं सकते। सिद्धों ने पूर्णता प्राप्त कर ली है इसीलिए वे घट-बढ़ से पृथक् हैं । अर्हंत अभी मोक्ष नहीं हुए हैं। सिद्ध मुक्त हो गये हैं । सिद्ध अर्हंतों के लिए भी पूज्य है।21
सिद्ध - आठ कर्मोंरहित, आठ गुणों से युक्त परिसमाप्तकार्य और मोक्ष में विराजमान जीव सिद्ध कहलाते हैं। 22 आचार्य पूज्यपाद के अनुसार आठ कर्मों के नाश से शुद्ध आत्मा की प्राप्ति होती है, उसे ही सिद्ध कहते हैं । ऐसी सिद्धि करनेवाला ही सिद्ध कहलाता है। 23 इसीप्रकार आचार्य पण्डित आशाधरजी ने 'सिद्ध' की व्युत्पत्ति करते हुए कहा है ''सिद्धिःस्वात्मोपलब्धिः संजाता यस्येति सिद्ध" अर्थात् स्वात्मोपलब्धि रूप सिद्धि जिसको प्राप्त हो गयी है, वह ही सिद्ध है । 24 श्री योगिन्दु ने शुक्ल ध्यान से अष्ट कर्मों को समाप्त कर मोक्ष पाने की स्थिति को सिद्ध कहा है। 25
योगी - पण्डित आशाधरजी ने योगी शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार दी है- 'योगो ध्यान सामग्री अष्टाङ्गानि विद्यन्ते यस्य स योगी' अर्थात् अष्टांग योग को धारण करनेवाला योगी कहलाता है।2" योग शब्द 'युज' धातु से बना है जिसका अर्थ है समाधि से जुड़ना । 'आत्म रूपे स्थीयते जलभृतघटवत् निश्चलेन भूयते स समाधिः' अर्थात् जलभरे घड़े के समान निश्चल होकर आत्मस्वरूप में अवस्थित होने को समाधि कहते हैं । 27 साम्य, समाधि, स्वास्थ्य, योग, चित्त - निरोग और शुद्धोपयोग आदि सभी का तात्पर्य योगी से है। 28 'योगी शतक' में उन्होंने भगवान जिनेन्द्र को योगी माना है। एक स्थान पर उन्होंने लिखा है - “योगीनां ध्यानिनामिन्द्रः स्वामी" - हे भगवान, आप योगीन्द्र है क्योंकि आप योगियों अर्थात् ध्यानियों के इन्द्र हैं । 29
1
स्तवन "संस्तवनं संस्तव" अर्थात् सम्यक प्रकार से स्तवन करना ही संस्तव कहलाता है। षड् आवश्यक में चौबीस तीर्थंकरों की प्रशंसा करने को ही स्तब कहा है । मूलाचार में स्तव या स्तवन के छह भेद कहे गये हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । पण्डित आशाधरजी ने भी अपने अनगार धर्मामृत के आठवें अध्याय में स्तवन के ये ही छह भेद बताये हैं । 31
-
श्रुत - ज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर उद्दित जिसके प्रभाव से सुना जा सके श्रुत कहलाता है । इसीलिए आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्द्ध सिद्धि में कहा है कि वे ही शास्त्र श्रुत