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जैनविद्या - 22-23
अप्रेल
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2001-2002
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पण्डित आशाधरजी द्वारा प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दावली और उनकी विवेचना
- डॉ. संजीव प्रचण्डिया 'सोमेन्द्र'
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जैन साहित्य और संस्कृति को भारतीय साहित्य का मूलभूत अंग माना गया है। भारत में संस्कृत-प्राकृत-अपभ्रंश में सहस्राधिक रचनाएँ रची गयी हैं और इन सभी भाषाओं में रची गयी रचनाओं से हिन्दी साहित्य की अहम वृद्धि हुई है। महाकवि पण्डित आशाधरजी ने भी विविध विधाओं में रचना रची है । ये तेरहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के लब्ध- प्रतिष्ठित कवि थे । इन्होंने अनेक कृतियों की रचना की जिनमें कुछ इस प्रकार हैं - सागार धर्मामृत, जिनयज्ञकल्प, अनगार धर्मामृत, प्रमेय रत्नाकर भरतेश्वराभ्युदय, ज्ञान दीपिका, राजीमती विप्रलंभ, आध्यात्म रहस्य, भूपाल चतुर्विंशतिका टीका, आराधनासार टीका, सहस्रनामस्तवन, क्रियाकलाप आदि। इन सभी रचनाओं की विषयवस्तु जैन संस्कृति और साहित्य है । पण्डित आशाधरजी ने अनेक पारिभाषिक शब्दावलियों का प्रयोग अपनी रचनाओं में किया है। कुछेक शब्दों को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर उनके द्वारा दी गयी अभिव्यक्ति की हम यहाँ चर्चा करना चाहेंगे ।
परमेष्ठि - 'परमेष्ठि' शब्द यौगिक शब्द है। परम + इष्ठ, परम अर्थात् मुख्य, इष्ठ (इष्ट) अर्थात् आराध्य। मूल आराध्य । जैनधर्म में व्यक्ति की पूजा नहीं की गई है। यहाँ गुणों की उपासना की गई है।' इस दृष्टि से जैन साहित्य में पंच परमेष्ठी' - अरहन्त,