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जैनविद्या - 22-23 द्वारा कथित द्वादशांग को श्रुत जिन जानना चाहिए। पंच परमेष्ठी का अर्चन-वन्दन जिनयज्ञ है। इसकी क्रियाओं का क्रम कल्प है। अत: जिनपूजा के क्रिया-क्रम के उद्घोषक को 'जिनयज्ञकल्प' संज्ञा दी गयी ज्ञात होती है। लेखक ने लिखा भी है -
साकल्येनैकदेसेन कर्माराति जितोजिनाः। पंचाहदादयोऽष्टाः श्रुतं चान्यच्च तादृशम ॥ 1.2॥ जिनानां यजनं यज्ञस्तस्य कल्पः क्रियाक्रमः।
तद्वाचकत्वाच्च जिनयज्ञकल्पोऽयमुच्यते॥ 1.3॥ सामान्य परिचय ___ मन्दिर-जीर्णोद्धार - यह ग्रन्थ छह अध्यायों में विभाजित है। प्रथम अध्याय की विषयवस्तु इक्कीस पृष्ठों में वर्णित है। अध्याय के शुभारम्भ में ही पण्डितप्रवर लेखक ने पुण्याभिलाषियों के लिए जहाँ एक बार नित्यमह पूजन में उद्यमी श्रावक को जिनमन्दिर के निर्माण की प्रेरणा दी है, दूसरी ओर विशेष रूप से जीर्णोद्धार कराने को भी कहा है। उन्होंने इन भावनाओं को निम्न प्रकार अभिव्यक्त किया है -
अतो नित्यमहोद्युक्तैर्निर्माप्यं सुकृतार्थिभिः।
जिनचैत्यगृहं जीर्णमुद्धार्यं च विशेषतः।। 1.6 ।। इस कथन को ध्यान में रखकर नये मन्दिरों की निर्माण की अपेक्षा पुराने जीर्ण मन्दिरों के उद्धार की ओर हमारा लक्ष्य रहना चाहिए। मन्दिर के जीर्णोद्धार अथवा उसमें अपूर्व प्रतिमा के आने पर शान्तिविधान करे ॥ 1/190॥
शुभ चिह्न - जिनमन्दिर के जीर्णोद्धार के सम्बन्ध में जानकारी करते समय दिगम्बर मुनि, बछड़ेवाली गाय, बैल, घोड़ा, हाथी, सधवा स्त्री, छत्र और आदि शब्द से चमर, ध्वजा, सिंहासन, दही, दूध इत्यादि का दिखाई देना तथा वीणा का शब्द, जैनशास्त्रों का पाठ, अर्हन्त को नमस्कार आदि शब्दों का सुनाई देना लेखक की दृष्टि में शुभ माने गये हैं -
मुनिगोऽश्वेभभूषाढ्य योषिच्छत्रादि दर्शनम्।
तत्प्रश्ने वेदपाठाहन्नुत्यादि श्रवणं शुभम्॥ 1.9॥ लेखक का परामर्श है कि जो अपना और राजा एवं प्रजा का कल्याण चाहता है उसे कभी भी जिनमन्दिर एवं जिन प्रतिमा के निर्माण में वास्तुशास्त्र का उल्लंघन नहीं करना चाहिए -
जैन चैत्यालयं चैत्युमुत निमर्पियन् शुभम्। वांछन स्वस्य नृपादेश्च वास्तुशास्त्रं न लंघयेत्॥ 1.17 ।।