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जैनविद्या - 22-23
गृहस्थ का लक्षण
न्यायोपात्तधनो यजन् गुणगुरुन् सद्गीस्त्रिवर्ग भजनन्योन्यानुगुणं तदर्हगृहिणीस्थानालयो हीमयः। युक्ताहारविहारआर्यसमितिः प्राज्ञ कृतज्ञो वशी
शृण्वन् धर्मविधिं दयालुरघभीः सागारधर्म चरेत्॥ 1.11 ॥ सा.ध. - न्यायपूर्वक धन कमानेवाला; गुणों, गुरुजनों और गुणों से महान् गुरुओं को पूजनेवाला; आदर-सत्कार करनेवाला; परनिन्दा, कठोरता आदि से रहित प्रशस्त वाणी बोलनेवाला; परस्पर में एक-दूसरे को हानि न पहुँचाते हुए धर्म-अर्थ और काम का सेवन करनेवाला; धर्म-अर्थ और कामसेवन के योग्य पत्नी, गाँव, नगर और मकानवाला, लज्जीशील; शास्त्रानुसार खानपान और गमनागमन करनेवाला; सदाचारी पुरुषों की संगति करनेवाला; विचारशील; पर के द्वारा किये गये उपकार को माननेवाला; जितेन्द्रिय; धर्म की विधि को प्रतिदिन सुननेवाला; दयालु और पापभीरु पुरुष गृहस्थ धर्म को पालन करने में समर्थ होता है।
मूलोत्तरगुणनिष्ठामधितिष्ठन् पञ्चगुरुपदशरण्यः।
दानयजनप्रधानो ज्ञानसुधां श्रावकः पिपासुः स्यात ॥ 1.15 ॥ सा.ध. - जो मूल गुण और उत्तर गुणों में निष्ठा रखता है, अर्हन्त आदि पाँच गुरुओं (पंच परमेष्ठियों) के चरणों को ही अपनी शरण मानता है, दान और पूजा जिसके प्रधान कार्य हैं तथा ज्ञानरूपी अमृत को पीने का इच्छुक है वह श्रावक है।
अनु. - पं. कैलाशचन्द शास्त्री