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जैनविद्या - 22-23
अप्रेल - 2001-2002
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पण्डित श्री आशाधरजी की दृष्टि में
'अध्यात्म-योग-विद्या'
- डॉ. राजेन्द्रकुमार बंसल
आचार्यकल्प पण्डित आशाधरजी की अद्वितीय जैन साहित्य साधना, अगाध बुद्धिकौशल एवं स्वानुभव से परिपूर्ण धर्मामृतरूप जैनागम-सार उनकी कृति 'अध्यात्म-रहस्य' में सहज ही द्रष्टव्य है । पण्डित जी ने जैन-जैनेतर साहित्य का विशद अनुभव कर सतरह अध्यायों में धर्मामृत ग्रंथ की रचना की। अपने पिताश्री की प्रेरणा से आपने धर्मामृत के अठारहवें अध्याय के रूप में 'अध्यात्म-रहस्य' की रचना की, जो संयोगवश उनकी भावनानुसार धर्मामृत का अंग नहीं बन सका। योग अर्थात् ध्यान/समाधि-विषयक होने के कारण इसका अपर नाम 'योगोद्दीपन' भी है । इसकी पुष्टि निम्न समाप्तिसूचक वाक्य से होती है - 'इत्याशाधर-विरचित-धर्मामृतनाम्नि सूक्ति-संग्रहे योगोहीपनयो नामाष्टादशोऽध्यायः'
पण्डित जी ने उक्त वाक्य में सूक्ति-संग्रह विशेषण लगाया है। यह विशेषण इस तथ्य की पुष्टि करता है कि पण्डित आशाधरजी ने धर्मामृत में जो लिखा है वह अरहतदेव और उनकी गणधर-आचार्य-परम्परा के प्रभाव-पुरुषों की अर्थसूचक सूक्तियों का संग्रह है, जिनआगम स्वरूप ही है।