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जैनविद्या 22-23
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‘आत्मैव गुरूरात्मनः' अर्थात् आत्मा ही आत्मा का सद्गुरु है जिसका अंतरनाद हो और सुनाई पड़े। अंतरात्मा की आवाज ही सन्मार्ग-दर्शक है (श्लोक 13 ) ।
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पारगामी योगी का स्वरूप
जिसके शुद्धस्वात्मा में, निजात्मा की राग- -द्वेष-मोह रहित अवस्था में सद्गुरु के प्रसाद से श्रुति, मति, ध्याति और दृष्टि - ये चार शक्तियाँ क्रमशः सिद्ध हो जाती हैं वह योगी योग का पारगामी होता है ( श्लोक 3 ) । इस प्रकार आत्म-साक्षात्कार की दृष्टि देनेवाला गुरु ही सद्गुरु है ।
स्वात्मा (बहिरात्मा) का स्वरूप
जो आत्मा निरन्तर हृदय - कमल के मध्य में, उसकी कर्णिका में 'अहं' शब्द के वाच्यरूप से 'मैं' के भाव को लिये हुए पशुओं, मूढों तक को स्वसंवेदन (स्वानुभूति) से ज्ञानियों को स्पष्ट प्रतिभासित होता है वह स्वात्मा है (श्लोक 4 ) ।
शुद्ध-स्वात्मा (अंतरात्मा ) का स्वरूप
स्वात्मा ही जब किसी से राग-द्वेष-मोह नहीं करता हुआ सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्ररूप परिणत होता है, शुद्ध-स्वात्मा कहलाता है। (श्लोक 5 ) । पर्याय दृष्टि से स्वात्मा के और अशुद्ध दो भेद हो जाते हैं ।
शुद्ध
परब्रह्म (परमात्मा) का स्वरूप
जो निरन्तर आनन्दमय - चैतन्य रूप से प्रकाशित रहता है, जिसको योगीजन ध्याते हैं, जिसके द्वारा यह विश्व आत्म-विकास की प्रेरणा पाता है, जिसे इन्द्रों का समूह नमस्कार करता है, जिससे जगत की विचित्रता व्यवस्थित होती है, जिसका हार्दिक श्रद्धान आत्मविकास का मार्ग (पदवी) है और जिसमें लीन होना मुक्ति है, ऐसा वह परमब्रह्मरूप सर्वज्ञ-सूर्य मेरे हृदय में सदा प्रकाशित हो ( श्लोक 72 ) । केवलज्ञानमय सर्वज्ञ ही परमप्रकाश - रूप परब्रह्म है।
योगी की चार सिद्धियों का स्वरूप
1. श्रुति श्रुत - जिनेन्द्रदेव द्वारा उपदेशित ऐसी गुरुवाणी जो प्रथमतः ज्ञात एवं उपदिष्ट ध्येय को अर्थात् ध्यान के विषयभूत शुद्धात्मा को धर्म्यध्यान तथा शुक्लध्यान में दृष्ट (प्रत्यक्ष) और इष्ट (आगम) के अविरोध रूप आयोजित एवं व्यवस्थित करती है उसका नाम श्रुति है (श्लोक 6 ) । ऐसी धर्म देशना जो स्वात्मा को प्रशस्त ध्यान की ओर लगाकर शुद्धात्मा-ध्येय को प्राप्त कराने की दोषरहित विधि है, वह श्रुति है । 'एकाग्रचिंता निरोधो ध्यानं ' एकाग्र में चिन्ता निरोध को ध्यान कहा है। शुद्धात्मा में चित्तवृत्ति के नियंत्रण एवं चिन्तान्तर के अभाव को ध्यान कहते हैं, जो स्व-संवित्तिमय होता है ।