________________
जैनविद्या - 22-23
71 कि सुगति की प्राप्ति से इन्द्रिय-विषयों का बारम्बार सुख और दुर्गति से इन्द्रिय-विषयों की अप्राप्तिरूप दुख होता है। उसकी यह मान्यता अविद्या रूप है और पाप का बीज है (श्लोक 20)। इस अविद्या का छेदन सम्यग्ज्ञान एवं उपेक्षारूप विद्या से शक्य है जिसका वर्णन आगे किया है।
उत्तम सुख (मोक्ष) का मार्ग : रत्नत्रय
रत्नत्रय उत्तम सुख (मोक्ष) का मार्ग है। रत्नत्रयात्म अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप शुद्ध-स्वात्मा (अंतरात्मा) ही यथार्थतः मोक्ष-मार्ग है । अत: मुमुक्षुओं द्वारा वही पृच्छनीय, अभिलाषणीय और दर्शनीय है (श्लोक 14)। अन्यत्र भटकने की आवश्यकता नहीं है।
___ शुद्ध चिदानन्दमय स्वात्मा के प्रति तद्रूप प्रतीति, अनुभूति और स्थिति में अभिमुखता ही क्रमशः गौण (व्यवहार) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है और उस प्रतीति, अनुभूति तथा स्थिति में उपयोग की प्रवृत्ति मुख्य (निश्चय) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र है (श्लोक 15)। शुद्ध-स्वात्मा की प्रतीति दर्शन, अनुभूतिज्ञान और स्थिति चारित्र है। इनकी अभिमुखता व्यवहार रत्नत्रय है और उपयुक्ता अर्थात् उपयोग-की-प्रवृत्ति निश्चय रत्नत्रय है।
निश्चय रत्नत्रय की महत्ता - सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप त्रिरत्न को स्वात्मा की बुद्धि में धारण-श्रद्धान कर जब जीव शुद्धस्वात्मा का इस तरह संवेदन (अनुभव) करता है कि संवेद्यमान (अनुभव में आनेवाली) स्वात्मा में स्वयं में लीन हो जाता है तभी त्रिरत्नमय गुणों का उच्च विकास होता है (श्लोक 16)। इसे ही ज्ञानानुभूति कहते हैं। व्यवहार-निश्चय सम्यग्दर्शन ___ अपने शुद्ध-बुद्ध-चिद्रूप स्वभाव से भिन्न आत्मा की छः द्रव्यों तथा सात तत्वादि के प्रति अभिरुचि व्यवहार सम्यग्दर्शन है। अपने शुद्ध-बुद्ध-चिद्रूप स्वभाव की ओर प्रवृत्त आत्माभिमुखी रुचि का नाम निश्चय सम्यग्दर्शन है (श्लोक 67)। व्यवहार-निश्चय सम्यग्ज्ञान
पर-पदार्थों के ग्रहण को गौण कर निर्विकल्प स्व-संवदेन को निश्चय सम्यग्ज्ञान कहते हैं । पर-पदार्थों के ग्रहण रूप सविकल्प ज्ञान को व्यवहार सम्यग्ज्ञान कहते हैं । भेद, विशेष तथा पर्याय को विकल्प कहते हैं, जो इनसे सहित है वह सविकल्प और जो रहित है वह निर्विकल्प कहा जाता है (श्लोक 68)। जो ज्ञान आत्मा से भिन्न पर-पदार्थ से संसर्ग को प्राप्त हो रहा हो तथा वह किसी शब्द-समूह का विषय बना हुआ हो, तभी सविकल्प कहलाता है (श्लोक 69)।