Book Title: Jain Vidya 22 23
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 56
________________ 47 जैनविद्या - 22-23 17. रत्नत्रय विधान ___यह छोटा सा आठ पत्रों का ग्रंथ मुम्बई के ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन में है। इसका मंगलाचरण इस प्रकार है - श्री वर्धमान मानभ्य गौतमार्दीश्च सद्गुरून। रत्नत्रयविधिं वश्ये यथाम्नायां विमुक्तये॥ 18. अष्टांगहृदयोद्योतिनी टीका ___ यह आयुर्वेदाचार्य वाग्भट के सुप्रसिद्ध ग्रंथ वाग्भट या अष्टांगहृदय की टीका है। 19-20. सागार और अनगार धर्मामृत की भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका - यह टीका पृथक्-पृथक् दो जिल्दों में प्रकाशित हो चुकी है। डॉ. नेमीचन्द्र जैन कहते हैं - "पण्डित आशाधर ने 'धर्मामृत' ग्रन्थ लिखा है जिसके दो खण्ड हैं - अनगारधर्मामृत और सागारधर्मामृत।" अनगारधर्मामृत में मुनिधर्म का वर्णन आया है तथा मुनियों के मूलगुण और उत्तरगुणों का विस्तारपूर्वक निरूपण किया है। पण्डितप्रवर आशाधर विषयवस्तु के लिए मूलाचार के ऋणी हैं। इन दोनों ग्रंथों में श्रमण और श्रावक दोनों की चर्याओं का वर्णन किया है। इस प्रकार पण्डितप्रवर आशाधरजी के वर्तमान में तीन सुलभ ग्रंथ - 'जिनयज्ञकल्प' वि.सं. 1285 में, 'सागारधर्मामृत टीका' वि.सं. 1296 में और 'अनगारधर्मामृत टीका' वि.सं. 1300 में रचे गए। जिनयज्ञकल्प' की प्रशस्ति में जिन दस ग्रन्थों के नाम दिए हैं, वे वि.सं. 1285 के पहले के बने हुए होने चाहिए। उसके बाद 'सागारधर्मामृत' टीका की समाप्ति तक अर्थात् वि.सं. 1296 तक काव्यालंकार टीका, सटीक सहस्रनाम, सटीक जिनयज्ञकल्प, सटीक त्रिषष्टि स्मृति और नित्यमहोद्योत - ये पाँच ग्रन्थ बने। अन्त में वि.सं. 1300 तक राजीमती विप्रलम्भ, अध्यात्मरहस्य, रत्नत्रय विधान और अनगारधर्म टीका की रचना हुई। त्रिषष्टि स्मृति की प्रशस्ति से मालूम होता है कि वह वि.सं. 1392 में बना है। इष्टोपदेश टीका में समय नहीं दिया है। समग्रतः पण्डितप्रवर आशाधर अनेक विषयों के विद्वान होने के साथ-साथ असाधारण कवि थे। उनका व्यक्तित्व इतना सरल और सहज था, जिससे तत्कालीन मुनि और भट्टारक भी उनका शिष्यत्व स्वीकारने में गौरव का अनुभव करते थे। उनकी लोकप्रियता की सूचना उनकी उपाधियाँ ही दे रही हैं। वस्तुतः प्रज्ञापुरुषोत्तम पण्डितप्रवर आशाधर का जैनदर्शन सम्बन्धी ज्ञान अगाध था। उनकी कृतियों की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि वह प्रत्येक बात को इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं कि पाठक पढ़ते-पढ़ते अध्यात्म रस में गोते लगाने लगता है। अध्यात्म का वर्णन प्रायः नीरस होता है पर पण्डितजी की यह महनीय

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