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जैनविद्या - 22-23 कहलाते हैं जिनमें भगवान की दिव्य ध्वनि का प्रतिनिधित्व हुआ हो। श्रुत की महिमा का वर्णन करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में कहा है कि आत्मा ज्ञानरूप है, और श्रुत भी एक ज्ञान है । अतः श्रुतज्ञान भी आत्मा को जानने में पूर्णरूप से समर्थ है।' पण्डित आशाधरजी के अनुसार श्रुतज्ञान और केवलज्ञान में केवल परोक्ष और प्रत्यक्ष कृत भेद हैं, सभी पदार्थों की विषय करने की अपेक्षा दोनों समान हैं। तीर्थंकर महावीर के उपरान्त हुए तीन केवली और पाँच श्रुतकेवली, श्रुतधर कहलाते हैं। भगवान महावीर के प्रमुख गणधर गौतमस्वामी भी केवली ही थे। आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में लिखा है -
श्रुत स्कन्धनभश्चन्द्रं संयम श्री विशेषकम्।
इन्द्रभूति नमस्यामि योगीन्द्रं ध्यान सिद्धये॥ अर्थात् जो श्रुत-स्कन्धरूपी आकाश में चन्द्र के समान हैं, संयम श्री को विशेषरूप से धारण करनेवाले हैं, ऐसे योगीन्द्र इन्द्रभूति गौतम को मैं ध्यान-सिद्धि के लिए नमस्कार करता हूँ। द्वादशात्मा होने के कारण भगवन जिनेन्द्र भी श्रुतधर कहलाते हैं। पण्डित आशाधरजी ने उन्हें 'गुरुश्रुति' और 'श्रुत-पूत' जैसे विशेषणों से सुशोभित किया है। इसका अर्थ है कि भगवान की दिव्य ध्वनि ही श्रुत है जिसके द्वारा भव्य प्राणी मोक्ष जाने में समर्थ है।
ऐसे ही अन्य अनेक पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग पण्डितप्रवर श्री आशाधरजी ने अपनी लेखनी में किया है जिससे उनकी रचनाधर्मिता और साधना का बोध होता है। जैनधर्म, संस्कृति और साहित्य के विविध पहलुओं पर उनका सीधा-सीधा प्रभाव प्रायः दिखायी देता है। सीधे और सपाट बयानगी में वे पीछे नहीं रहे हैं।
1. 'दश द्वार भव-भव पार' - डॉ. महेन्द्रसागर प्रचंडिया, जै.शो. अकादमी प्रकाशन, अलीगढ़ 2. णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व
साहूणं। 3. पण्डित आशाधर, जिनसहस्रनाम, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी वि.सं. 2010, 2/23 की
स्वोपज्ञवृत्ति, पृष्ठ 65। 4. 'मोक्षार्थ शास्त्र मुपेत्य त स्मादधीयत इत्युपाध्यायः' आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि,
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि.सं. 2012, 9/24 का भाष्य, पृष्ठ 442 । 5. वही पृष्ठ 442-431 6. पण्डित आशाधर, जिनसहस्रनाम, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि.सं. 2010, 2/23 की
स्वोपज्ञवृत्ति, पृष्ठ 65।