Book Title: Jain Vidya 22 23
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 67
________________ 58 जैनविद्या - 22-23 __अपने पिता के आदेश पर यथा - "आदेशात पितुरध्यात्म-रहस्यं नामयो व्यधात्। शास्त्रं प्रसन्न-गम्भीर-प्रियमारब्धयोगिनाम', उन्होंने योगोधीपन अश्वा अध्यात्मरहस्य नामक 72 पद्य की रचना स्वात्मा, शुद्धात्मा, श्रुतिमति, ध्याति, दृष्टि और सद्गुरु के लक्षणों आदि का प्रतिवादन करते हुए की थी। त्रिषष्टिस्मृति शास्त्र - इस ग्रन्थ का शीर्षक ही अत्यन्त उदबोधक है। जहाँ स्मृतियाँ वैदिक साहित्य का स्मरण कराती है, श्रुति का महत्व और परम्परा इंगित करती है, वहीं शास्त्र का भी रहस्यमयी संकेत अनेक प्रकार के शास्त्रों से मिलता है, यथा - कल्पशास्त्र, निमित्तशास्त्र । ज्योतिर्ज्ञान शास्त्र, वैद्यकशास्त्र, लौकिक शास्त्र, मंत्रवादशास्त्र आदि को बाह्यशास्त्र कहते हैं । व्याकरण, गणित आदि को लौकिकशास्त्र कहते हैं । न्याय शास्त्र व अध्यात्म शास्त्र सामायिक शास्त्र कहलाते हैं। आचार्यगण शास्त्र का व्याख्यान मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम, कर्ता रूप छ: अधिकारों सहित करते हैं । शास्त्र व देवपूजा में कथंचित् समानता, शास्त्र में कथंचित् देवत्व, शास्त्रश्रद्धान में सम्यग्दर्शन का स्थान, विधि-निषेध आदि का निरूपण मिलता है। वीतराग सर्वज्ञदेव के द्वारा कहे गये षड्द्रव्य व सप्त तत्व आदि का सम्यक् श्रद्धान व ज्ञान तथा व्रतादि के अनुष्ठानरूप चारित्र, इसप्रकार भेद रत्नत्रय का स्वरूप जिसने प्रतिपादित किया गया है उसको आगम या शास्त्र कहते हैं (पं. का./ता.वृ./173/255)। इस ग्रन्थ में 63 शलाका महापुरुषों के जीवन चरित्र, संभवतः तिलोयपण्णत्ती जैसे करणानुयोग के ग्रंथों से लेकर अतिसंक्षिप्त रूप में दिये गये हैं। उस समय भगवज्जिनसेन और गुणभद्र के महापुराण उनके समक्ष रहे होंगे, जिनके साररूप उन्होंने यह शास्त्र रचा होगा। यह ग्रन्थ खांडिल्यवंशी जाजाक नामक पण्डित की प्रार्थना और प्रेरणास्वरूप नित्य स्वाध्याय हेतु पण्डित आशाधर द्वारा रचा गया था। इसके पढ़ने से महापुराण का सारा कथा भाग स्मृतिरूप गोचर हो जाता है । ग्रंथकार ने टिप्पणी रूप में इस पर स्वोपज्ञ पंजिका' टीका भी लिखी है। सम्पूर्ण रचना 24 अध्यायों में विभक्त है और सम्पूर्ण ग्रंथ 480 श्लोकों में है। समस्त ग्रंथ की रचना सुललित, सुन्दर अनुष्टुप छन्दों में की गयी है। सर्वप्रथम 40 पद्यों में भगवान् ऋषभदेव का, फिर 7 पद्यों में अजितनाथ का, 3 पद्यों में संभवनाथ का, 3 पद्यों में अभिनन्दन प्रभु का, 3 पद्यों में सुमतिनाथ का, 3 पद्यों में पद्मप्रभ का, 3 पद्यों में सुपार्श्वजिन का, 10 पद्यों में चन्द्रप्रभ का, 3 पद्यों में पुष्पदन्त का, 4 पद्यों में शीतलनाथ का, 10 पद्यों में श्रेयांसनाथ का, 9 पद्यों में वासुपूज्य का, 16 पद्यों में विमलनाथ का, 10 पद्यों में अनन्तनाथ का, 17 पद्यों में धर्मनाथ का, 21 पद्यों में शान्तिनाथ

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