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जैनविद्या - 22-23
59 का, 4 पद्यों में कुन्थुनाथ का, 16 पद्यों में अरनाथ का, 14 पद्यों में मल्लिनाथ का, 11 पद्यों में मुनिसुव्रतनाथ का जीवन चरित्र वर्णित है। इनका संदर्भ लेकर राम-लक्ष्मण की कथा 81 पद्यों में वर्णित की गयी है। इनके पश्चात् 21 पद्यों में कृष्ण-बलराम, ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती आदि के चरित्र का वर्णन है। तत्पश्चात् तीर्थंकर नेमिनाथ का चरित्र 101 पद्यों में दिया है जहाँ श्रीकृष्ण आदि के जीवनवृत्त भी हैं। पुन: 32 पद्यों में पार्श्वनाथ का जीवन-चरित्र दिया है। महावीर-पुराण अंत में 52 पद्यों में रचित हुआ है।
इस प्रकार प्रत्येक तीर्थंकर के काल में जो-जो चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण आदि हुए उनके चारित्र का वर्णन भी उनके साथ हुआ है । ग्रंथ के अन्त में 15 पद्यों में प्रशस्ति रचित है जो ग्रन्थ-रचनाकाल एवं देश सम्बन्धी है -
नलकच्छपुरे श्रीमन्नेमिचैत्यालयेऽसिधत् ।
ग्रन्थोऽयं द्विनवद्वयेक विक्रमार्क समात्यये॥13॥ ' अर्थात्, इस ग्रन्थ की रचना विक्रम संवत् 1292 में नलकच्छपुर के नेमिनाथ जैन मन्दिर में हुई थी। उपसंहार
पण्डित आशाधर की कृतियों का मूल्यांकन शोध की वस्तु है। उनकी जिनभक्ति जिनयज्ञकल्प के श्लोक से स्पष्ट है -
या वत्रिलोक्यां जिनमन्दिररार्चाः तिष्ठन्ति शक्रादिभिरर्यमानाः। तावज्जिनादि प्रतिमाप्रतिष्ठां शिवार्थिनोऽनेन विद्यापयन्तु ॥ इसीप्रकार सागारधर्मामृत की भव्य कुमुदचंद्रिका नामक टीका में भी उल्लेख है -
यावत्तिष्टाति शासनं जिनपतेच्छे दानमन्तस्तमो। यावच्चार्क निशाकरौ प्रकुरुतः पूसां दशामुत्सवम्॥ तावत्तिष्ठतु धर्मसूरिभिरियं व्याख्यायमाना निशम्।
भव्यानां पुरुतोत्र देशविरताचारप्रबोधोद्धरा॥ पण्डित आशाधर ने इस ग्रन्थ के अन्त में भव्यजीवों के प्रति अपनी सद्भावना प्रकट की है -
शान्तिः शतं नुतां समस्त जगतां सम्पच्छतां धार्मिकैः। श्रेयः श्री परिवर्धतां नय धुराधुर्यो धरित्री पतिः॥ सद्विद्यारस समुद्गिरन्तु कवयो नामाप्यधस्यास्तु मा। प्रार्थ्यं वा कियदेव एव शिव कृद्धर्मो जयत्वर्हतः॥