Book Title: Jain Vidya 22 23
Author(s): Kamalchand Sogani & Others
Publisher: Jain Vidya Samsthan

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Page 59
________________ 50 जैनविद्या - 22-23 सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और लोक के सर्व साधु की आराधना की गई है। अरहन्त जिसने अपने चार घातिया कर्मों को समाप्त कर दिया है। सिद्ध - जिसने अपने चार घातिया और चार अघातिया कर्मों को समाप्त कर दिया है। आचार्य - जो दीक्षा देते हैं और संघ पर अनुशासन करते हैं तथा समय और साधन की उपयुक्त व्यवस्था करते हैं । उपाध्याय जिनके पास जाकर मोक्ष प्राप्ति के लिए शास्त्रों का अध्ययन किया जाता है। साधु वह है जो चिरकाल से जिन दीक्षा में प्रव्रजित हो चुका है।' गूढ़ अर्थ में यदि देखा जाये तो पण्डित आशाधरजी ने परमेष्ठि शब्द की व्युत्पत्ति 'जिन सहस्रनाम' में की है। उन्होंने परमेष्ठि को परम पद शुद्ध आत्मा ही माना है।' आचार्य कुन्दकुन्द ने मोक्षपाहुड में परमेष्ठी शब्द की व्याख्या करते हुए लिखा है - अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु, मेरी आत्मा में ही प्रकट हो रहे हैं, अतः आत्मा ही मुझे शरण है। उन्होंने आगे कहा कि परमेष्ठि वह है जो मलरहित (अर्थात् अठारह दोषों से शुद्ध होना), शरीररहित अनिंद्रिय, केवलज्ञानी, विशुद्धात्मा, परम जिन हो । - तीर्थंकर - तीर्थंकर तीर्थ की रचना करते हैं। तीर्थ वह तट है जहाँ से भवसमुद्र तिरा जाता है, मुक्त हुआ जाता है, इसीलिए संसाररूपी समुद्र से तिरानेवाले घाट को तीर्थ कहते हैं । 10 'तीर्थ करोति तीर्थंकर :' से स्पष्ट है कि तीर्थ को करनेवाला तीर्थंकर कहलाता है। जबकि पण्डित आशाधरजी 'जिन सहस्रनाम' में यह भी कहते हैं कि तीर्थ, तीर्थंकर की देन है जिसको आचार्य श्रुतसागर ने रत्नत्रय को तीर्थ की संज्ञा देकर स्पष्ट कर दिया है।12 उनके अनुसार बिना रत्नत्रय धारण किये संसार से छुटकारा नहीं हो सकता । धर्मश्चारित्रं स एव तीर्थः तं करोति धर्म तीर्थंकर : 13 अत: एक ही लक्ष्य को प्राप्त करते हुए भी मुनि और तीर्थंकर में भेद होता है। तीर्थंकर सदैव मौलिक मार्ग का स्रष्टा होता है। मुनि परम्परा का अनुयायी होता है। इसी कारण तीर्थंकर के आगे धर्मचक्र चलता है। 14 पंचकल्याणक - तीर्थंकर नाम-कर्म के उदय से तीर्थंकर पद मिलता है। 15 इसीलिए तीर्थंकर के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्ष ये पंचकल्याणक होते हैं।" तीर्थंकर की माँ को सोलह स्वप्न दिखायी देते हैं जो उनके विशिष्ट व्यक्तित्व की व तीर्थंकर होने की सूचना देते हैं। 17 निर्वाण - 'निःपूर्वक 'वो' धातु से निर्मित शब्द निर्वाण है, जिसका अर्थ है - बुझा देना | जैनधर्म में आत्मा कभी बुझती नहीं है किन्तु समूचे कर्मों के क्षय हो जाने से एक नया रूप धारण कर लेती है । अत: यहाँ बुझा देना क्रिया, संसार और कर्मों से जुड़ी अवस्था

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